चारित्रसार | Chaaritrasaar

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Chaaritrasaar  by लालाराम - Lalaraam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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9 1 ऋीरिषलाद चिष्ठानस्यो्तमक्षमादिदशकूलधर्मकल्पपादपमुलस्य परमपावनस्य सकलप्रंगलनिलबस्मर सोक्षमुरुय- करणस्याष्टगानि भवंति । निःशंकितत्वं निःक्राक्षता निविचिकित्सता अमूददृष्टित्वं उपवृहर्ण स्थिति- करणं वात्सत्यं प्रभावनां चेति ! तत्रेहलोक: परलोक: व्याधिमं रणं अग्ुप्ति: अत्रार्ण आकस्मिक द्रति सप्तविधादभथादिनिर्मुक्तता, अथवा5हँदुपदिष्टद्वादशांगप्रवचनगहने एकमक्षरं पद वर किमिद॑ स्याद्रा न बेति शंकातिरासो निशंकितत्वमू । एहलौकिकपारलोकिकें द्रियविषय उपभोगाकांक्षानिवृत्ति:, कुदृष्टथ - तराकांक्षानिरासों वा ति:कांक्षता । शरीराध्शुवित्वभावमवगम्य शुचीति मिष्यासंकलपापनयोऽथवाऽह्‌- सवचने इदमयुक्तं घोरं कष्टं न चैदिद सर्वमुपपन्‍्नमित्यशुभभावनानिरासो विचित्साविरह:ः । बहुविधेषु दुर्नयवर्त्मसु तत्त्ववदाभासमानेतु धुक्त्यभावमध्यवस्य परीक्षाच्रक्षुषा विरहितमोहममूददृष्टित्वम्‌ । उत्तमक्षमादिभाववयात्मन आत्मीयस्य चल धर्मपरिवृद्धिकरणमुपवु हणस्‌ । कषायोदयादिषु धर्मपरिभ्‌ श- रूपी राजमहल की नींव है, उत्तम क्षमा आदि दश कुलधर्म रूपी कल्पवक्ष की जड़ परम पत्रित्र है, समस्त मंगल द्रव्यों का स्थान है और मोक्ष का मुख्य कारण है। इस सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं--निःशंकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सा, अमृढ- ष्टि, उपगुहन, स्थितिकरण वात्सल्य भर प्रभादना, यहं लोक, परलोक, व्याधि, भरण भगुप्ति, भरक्षा ओर आकस्मिक । इन सातों प्रकार के भयों से रहित होना नि:शंकित है । अथवा भगवान अरहम्त देव के कहे हुये अत्यम्त गहन ऐसे द्वादशांग शास्त्र में एक अक्षर था एक पद के लिये “यह है या नहीं” ऐसी शंका न होना निःशंकित अंग है । इस लोक, पर- लोक और इृण्तियों के विवय सम्बन्धी उपभोगों की आकांक्षा दूर करना अथवा मिव्याहष्टि होने की आकांक्षा नहीं करना निःकांकित अंग है। शरीर आदि को अपविश्व समझकर “यहु शरीर पवित्र है” ऐसे मिथ्या संकल्प का दूर करना अथवा अरहन्त देव के कहे हुए शास्त्रों में जो कुछ कहा है बहू सब अयुक्त है, अत्यन्त कष्टवायक है लथा बिल्कुल असंभव है । ेसी अशुभ भावना नहीं करता निर्विचिकित्सा अंग कहा जाता है। अनेक अकार के जो नेय मागं (मिथ्यामागं) है, जिनमे कहे हए भवत्व था मिथ्या सस्व भी तत्वों के समान जान पडते हैं, उनमें धुक्तिर्थो का अभाव समक्षकर परीक्षा रूपी नेतरौ हे हारा अपना मोह




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