सुप्रभात | Suprabhaat

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Suprabhaat by सुदर्शन - Sudarshan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अमरीकन रमणीं प्रकार इन शब्दो मे प्रेम छिपा था! कौन कदता है, भारतीय भसभ्य हैं ! जो अपने प्रेम को ऐसे सभ्य शब्दों में प्रकर८/ कर सकते हैं, जो अपने मन की आग को इस तरह छिपा सश्चते हँ; उनो असभ्य कहना अपने आपदो असभ्य कहना है । में स्रोफे पर बेठों थी, मेरा हृदय अपने आपेमें व रहा। में जोश से कान # पढ़े हुए मोती को तरद्द काँपतो हुईं बोली--'तो तुम मुक्के चाहते दो! तुम रुमे प्यार करते हो १! मदनलाल की आँखों में आनन्द कौ झलक थी, परन्तु वे पागल नहीं दहो गये, उनके मुखमंडल से ऐसाईप्रतीत होता था, मानों उनके हृदय में विचारों की उथल- पुथल हो रही है, परन्तु उन्होंने अपने आपको वश में रखा, और धीरे से उत्तर दिया--' इसका उत्तर मेरी अखो से पूछी ।” मेंने हँसते हुए आगे बढ़कर उनकी भाँखो' में मककर देखा और कहा--“वहाँ तो में बंढी हूँ ।” कट्‌ नुम्हारी भँखो म मदनलाल ने मेरे द्वाथ पकढ़ लिये | इस समय उनका अंग-अंग थर्रा रहा था । चह बोले, मेरीन डीयर | तुम सुपे अन्याय कर रही हो, जो कहती दो कि तुम केवल मेरी आँखों में बस रही द्वो। भगर अच्छी तरह देखो तो मेरे शरीर के एक-एक परमाणु में, मेरे रक्त के एक-एक बिन्दु में, मेरे विचार की एक-एऋ तरंग में तुम मौजूद हो । मेरा मन तुम्दारी भेठ हो चुका है । मेरे स्वप्न तुम्दारी स्मृति के अपंण हो चुके हैं । मेरा सुख तुम्दारी याद में छौन हो गया है । जब नदो का बाँध खुल जाता है, तो जल पू्ण वेग से बदने लगता है । उसी प्रकार मदनलाल प्रेम के प्रवाह में बह रहे थे । इस समय का यह प्रेम पर भाषण करनेवाला नवयुवक्र उस पहले “लजाडु', “चुपचाप', “ভীতি सादे” मदनलाल से कितनों दूर, कितना परे था । मदनलाल बेठ गये । उनका मुखमंडल शान्त था, जेसे तूफान के पश्चात्‌ समुद्र शान्त दो जाता है | मेंने उनकी ओर देखा, उन्होंने मेरी ओर देखा | इन निगाहों में নি १ ৩.




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