श्रीभगवद्गीता प्रथम खण्ड | Siribhavadgita Part 1

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ६) विस्तृत भाष्य पूवे लिखित रीति का प्रणीत होगया हे ओर उसका कुछ अंश विद्यारणाकर नामक संस्कृत मासिकपत्र में प्रकाशित हुआ हे । सांख्यदशेन का संस्कृत भाष्य भी पूज्यपाद महर्पिगण के मत के अनुसार प्रणीत होगया है ओर उसका कछ अंश उक्त पत्र में प्रकाशित भी हुआ है, इस भाष्य को पढ़कर शिक्षित मण्डली विस्मित हुई है, ओर सांख्यदशेन आस्तिक হাল हे यह सबही एकवाक्य होकर स्वीकार करते दँ । कम्मेमीमांसा दशेन सभाष्य संस्कृत माषा में शीघ्र प्रकाशित होगा । दैवीमीमांसा दशन श्र्थात्‌ मध्यमीमांसा दशेन का भाष्य सम्पूर्ण होगया ই ओर उसके तीौनपाद सभाष्य संस्कृत भाषा में उक्त पत्रिका में प्रकाशेत होचके हैं। वेदान्तरशन का समन्वय भाष्य भी संस्कृत में प्रकाशित होगा । प्राचीन आय्यंगण का मत ठीक ठीक उद्धत करके ओर अन्यान्य नेज्नज्ञानभुभियों के अधिक्रारों को उन समस्त दर्शनोक़ शञानभूमियों के ठीक ठीक [विज्ञान के अनुसार प्रतिफदन करके इस वेदान्त भाष्य को सर्वाद्गासुन्दर करने की चेष्टा कीजायगी | কুন सात प्रकार के दशन शालो का ठीक ठीक प्रचार ओर इनकी यथाविधि शिक्षा देने के अर्थ इन सातों दशनो के संस्कृत भाष्य प्रणयन का काय्ये बहुत कुछ अग्रसर हो गया है। इस समय हिन्दीभाषा के पाठकवर्ग के अर्थ यह सब्र दर्शन ग्रन्थ सरल हिन्दीभाषा में विस्तृत भाष्य के साथ क्रमशः प्रकाशित करने की प्री इच्छा है। ओर साथही साथ श्रीमद्भगवद्गीया का एक अति उत्तम भाष्य (जिस श्रीगीताजी के अध्यात्म अधिदेव आवेभत ये तीनों स्वरूप दिखाये जाये ) प्रकाशित करना निश्चय किया गया है। हमारे सहदूण में स अनेकों ने परामर्श दिया हे कि ज्ञान भूमि के क्रम के अनुसार पहले न्याय ओर वेशेषिकादि दशेन प्रकाशित होना उचित है । किन्त इमने विचार करके देखा है फ्रि जब इससे पहले ही से ये दर्शन हिन्दी में सामान्य रूप से प्रचारित हैं तत्र इनका विस्तृत भाष्य के साथ प्रचार यथपि आवश्यक है तथापि पहलेही इनको प्रकाश करने से पाठकों का तादश वित्त विनोदन नहीं होगा, दूसर दवीरमीमांसा आदि दशेन ग्रन्थों का प्रचार जब बिलकुल ही नहीं था तो इनके पहिले प्रचारित होने से पाठकों की आनन्द, उत्साह शरोर बहुत कुं अभिज्ञता शद्धि की विशेष सम्भावना है, तीसरे वेदिक दशनशाखत्र प्रचार के काय्ये में जब हम प्रदत्त हुए हैं तो प्रथम ही भगवद्धक्रि प्रकाशक देवीमीमासा दशन ओर भगवद्वीतारूपी भगवद्वाक्य का प्रकाश भ्रस्यन्त कक्याणकर है इसमें कुछ भी सन्देद नहीं है ।




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