काव्यालंकार सूत्रवृत्तिः | Kavyalankaar Sutravrittih

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : काव्यालंकार सूत्रवृत्तिः  - Kavyalankaar Sutravrittih

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

No Information available about डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

Add Infomation About. Dr.Nagendra

विश्वेश्वर: - Vishveshvar

No Information available about विश्वेश्वर: - Vishveshvar

Add Infomation About: Vishveshvar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
गे चलकर आचार्यों ने प्रायः इन्हीं प्रयोजनों की चर्चा की है। भोज পপ কপার क कचन ह , अदोषं गुणवत्कान्यमलंकारेरलंकृतम्‌ । <). {° रसान्वितं कविः कुवैन्कीर्ति' प्रीति च विन्दति ॥ यहां भी भामह श्रौर वासन के कीर्ति ओर प्रीति इन दो प्रयोजनों का उस्लेख ৫ সপ শত পা পর সপ সপ জা है। मम्मट ने इस प्रसंग में कुछ अधिक निश्चित शब्दावल्वी का प्रयोग किया: এপি কাজ यशसे<थकृते ब्यवहारविदे शिवेवरक्षतये । ~< सद्यः परनि त्तये कान्तासम्मिततयो पदेशयुजे ॥ अर्थात्‌ यश, अर्थ, व्यवहार-ज्ञान, अशिव की ति, तात्कालिक श्ानन्द्‌, श्रार कान्तासम्मित उपदेश--ये छुः काव्य के प्रयोजन हे । मम्मट.का मत भरत चचार भामह के मत से मूलतः भिन्न नहीं है । 'अशिव की क्तिः कुलु नचोन सी उद्धावना अवश्य प्रतीत होती है। परन्तु एक तो यह प्रयोजन दविक चमत्कार पर आश्रित है, आर कुछ विशेष कवियों से सम्बद्ध किंवदन्तियां ही इसका आधार हें--इसलिए बहुत कुछ एकांगी तथा आकस्मिक हे शोर श्राज युग से यह विश्वसनीय भी नहीं हो सकता । दृसरे, भरत के हित शः आर भाभह के चत॒बंग सं इसका अन्तभाव भो আলা ই। লন লিজা ভব मम्मट का विवेचन स्थूल है--उनके द्वारा निर्दिष्ट प्रयोजन निश्चित अ्रवश्य हैं, परन्तु मौलिक नहीं ই परन्तु मौलिक नहीं हैं--उन्होंने मूलभूत तत्वों को ग्रहण न कर व्यक्त परिणामो को ही क्लिया हं । उन्हें काव्य के फल कहना अधिक संगत होगा। विश्वनाथ ने इन सबका पृथक निदेशन न कर चतु्व॑र्ग में ही समाहार कर दिया है :-- (3 १9) <€ 2 चतुवेगफलप्राप्चि सुखादल्पधियामपि । उपयुक्त कारिका में चतुवेगं को कान्य का उद्देश्य और सुख को उसको विधि बताया गया हे । किन्तु सुख यहां आनन्द का पर्याय नहीं है सरल ओर रचिक्र का ही वाचक हे । उपयुक्त विवेचन का सार इस प्रकार हे ; भरत से लेकर मम्मट आदि तक सभी श्राचायौ ते काव्य-प्रयोजन का विवेचन कवि ओर सहृदय दोनों को दृष्टि से ही किया है। भरत-निर्दिष्ट प्रयोजनों मे हित, बुद्धि-विवधंन तथा लोकोपदेश तो सहृदय की दृष्टि से कहे' ( १४ )




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now