तपो भूमि | Tapo Bhumi
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13 MB
कुल पष्ठ :
220
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
ऋषभ चरण जैन - Rishabh Charan Jain
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जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२७०
पवित्र होकर, समाज में स्वच्छन्द विचरने दे ! धमं का कंसा भया-
नके उपहास है-हमारा यह सामाजिक जीवन । पुरुष के दोष के
लिए उस िचारी कन्या को सजा सुनाओ ? पुरूष के दोष की सजा
तुम अपने-भापक्रो सुनाभो । तुम इसके भागी हो--तुम दोषी हो ।
धरिणी के साहस ने मेरी आलं लोल दी है । उसका वह साहस
जभिनन्दनीय है । वह कहाँ है ? मे उसे श्ान्त्वना दू गा। कहूँगा--
अपराध पुरुष जाति का है--मेरा है । हमें तेरी शर्म नहीं--क्षमा
चाहिए ।”
सुन्दरलाल का रंग आया और गया। आखिरी वाक्य पर
उन्होंने कहा--“तो साफ कहते हो कि कुसूर तुम्हारा है ?”
मैने चमककर कहा--“हाँ, मै कभी नहीं मानता, धरिणी
अपराधी है। अपराधी पुरुष है। उस अपराध का उतना ही उत्तर-
दायित्व तुम पर है जितना मुझ पर ।””
मैं इतना कह कर जाने को तैयार हुआ । पिता ने पूछा-“नवीन
कहाँ जाते हो ?
मैने कहा--“धरिणी को मालूम होना चाहिए कि उन हृदय-
हीनों के बीच में, जो उसके दुःख में सुखी होते की लालसा रखते हैं,
एक सहृदय भी है, जो उसके दुःख को নালা चाहता है। मैं
धरिणी के पास जाता हूँ ।”
पिता ने कहा--“नहीं, वहाँ तुम नही जाओगे । तुम्हारा
जाना व्यर्थ है । वह कभी नहीं मानेगी कि तुम्हारी सहानुभूति
सच्ची सहानुभूति है।””
» पुल्दरलाल--“नवीत, क्यों खामख्वाह जलील होना चाहते
हो?
सतौद्य--“नहीं, वहाँ तुम कैसे जाओगे ?”
मैंने कहा--“ठीक है, मेरा न जाना ही टीक है। सतीश,
जाओ, धरिणी को यहाँ ले आओ । आप खुद देखते हैं--संकोच' से
यहाँ काम न चलेगा ।”
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