सुप्रभात | Suprabhat

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Suprabhat by सुदर्शन - Sudarshan

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about सुदर्शन - Sudarshan

Add Infomation AboutSudarshan

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
अमरीकन रमणी अपमान करने ! नहीं मेरीन ! तुम भूलती हो! संसार में कोई बुरा से बुरा शब्द ऐसा नहीं, जो ठुम्हारे अपमान के लिए कहा जा सकता हो | तुमने मेरे साथ धोखा नहीं किया, कत्त व्य, प्रे भ, मनुष्यत्व, देश-प्र म॒ और घछी-जाति क खील के खथ धोखा शियः है। मेरे हृदय में अमरोका का गौरव बेठा हुआ था, तुमने उसे अशुद्ध अक्षर के समान छीर दिया है । मेरे हृदय में स्रो-जाति के लिए सम्मान था, तुमने उसे मिटा दिया है। में सम्रकता था, स्री कुछ नहीं चाहती, केवल प्रेम चाहतो है । तुमने अपने उदाहरण से सिद्ध कर दिया है, कि श्री सब कुछ चाहती है, केवल प्रेम दी नहीं चाहती । उसके हाथ मं यह साधन है, जिससे वह पुरुषो को म॒खं बनाती है भौर इसके बाद उन्हें भूछ जाती है । यह विचार, और नहीं तो तुमने अमरीकन ख्रियों के संबन्ध में तो सच्चा सिद्ध कर दिया है। भारतबप के लिए तुम्हारा सन्देशा अमरीकर ` मान-प्रतिष्ठा को लोगों की दृष्टि में बहुत घटा देगा । मुक्त पर इनमे से किसी बात का अपर न हुआ । परन्तु अन्तिम शब्दों पर জা से पानी-पानी हेः गई । अमरीकन घी सव कुर सह सकती है, मगर यह नदी सद्‌ सकती कि बढ़ देशधातक है ; उसने देश की प्रतिष्ठा को नौचे गिरा दिया है । इन शब्दों से मेरे कलेजे पर छरियाँ चछ गई । मुककों उस समय इतवा क्रोध था कि. अगर हाथ में पिस्तोल होती तो मदनलाल को वहीं ढेर कर देती। मदनलाल ने जब यह शब्द कहे तो उनके चेहरे पर क्रोध न था, परन्तु में यह शब्द सुनकर पागल हो गई और चिल्लाकर बोलौ--'मेरे मकान से निकल जाओ । मदवलाल ने आइचये से मेरी ओर देखा | कदाचित्‌ उनझो यद्ट ख्याल न था कि- मनुष्य इतना नौच भी दो सकता है । उस समय मेरे शरीर पर उन्हीं के रुपये से खरीदे हुए आभूषण थे । यदि वे चादते तो उच्की ओर इशारा करके मेरा सिर झुका सझते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया और चुपचाप मेरे मझान से निकल गये । आठउन्‍दस महीने बीत गये ¦ मे मदनलाल को मृल गड । मुझे इतना भी स्मरण नहों रद्दा कि मने उनको कोई चोट परहुवाई है । मेरे भारतीय पाठ आद्चये न करें, अमरोकन चत्री कौ प्रकृति हौ ऐसी है । वे पुरुषों का मच तोढ़ती हैं और सरल जाती हैँ! एक दिन बाज़ार में भीड़ देखकर में ठहर गई । वहाँ एक योगी बेठा था। उसके: नग्न ५ ९-




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now