तार सप्तक कवियों के काव्य सिद्धान्त और उनकी कविता | Tar Saptak Kaviyon Ke Kavya Siddhant Aur Unki Kavita

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Tar Saptak Kaviyon Ke Kavya Siddhant Aur Unki Kavita by अखिलेश कुमार मिश्र - Akhilesh Kumar Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अथव! समाप्ति पर आया, छायावाद के वे ही कवि जो धूप मे निकलने से परहेज करते थे, खेतो, खलिहानो ओर कारखानो के आस-पास घूमने लगे | इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि छायावादोत्तर काल कोई सर्वथा नवीन क्षितिज लेकर नहीं आया था । वह छायावादी प्रयोगो के परिपाक से उत्पन्न हुआ । यहा दिनकर आशिक रूप से ही सही है। क्योकि निराला छायावाद के आरम्भ से ही दिवा के तमतमाते रूप को देख रहे थ| यहाँ कुछ पक्तियो को देख लना होगा -- चढ रही थी श्प, गर्मियों के दिन दिवाका तमतमाता रूप, उठी झुलसाती हुई लू , रूई ज्यों जलती हुई भू, गर्द चिनगी छा गयी, प्राय हुई दोपहर -- वह तोडती पत्थर छायायाद के साथ ही हिन्दी कविता मे एक नये यथार्थ का जन्म हो रहा था। जिसे छायावादी कल्पनाशालता मजूर नर्ही थी | यह यथार्थ भारतेन्दु युग से ही अपनी अभिव्यक्ति के अवसर तलाशता कभी मौन तो कभी मुखर होता चला आ रहा था। छायावाद मे वह निराला के यहो मुखरित हो रहा था। एसे ही समय में सन्‌ १६३६ मे प्रगतिशील लेखक सघ की स्थापना हुई} काग्रेस की राजनीति मे किसान सभा अस्तित्व मे आयी । सारांश यह कि जीवन के नये यथार्थं की अभिव्यक्ति के सारे सामान एकत्र हो चुकं थे। अप्रेल १६३६ मे प्रगति शील लेखक सघ के स्थापना प्र




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