सृष्टिवाद और ईश्वर | Srishtivad Aur Ishwarwad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका . ` ११ योडस्याध्यत्तः परमे व्योमन्‌ त्सो श्ंगेवेद यदिवानवेद्‌॥ अर्थात्र्‌-यह विशेष सृष्टि किसमें से उत्पन्न हुई, अथवा किसी ने उसको धारण किया कि नहीं, अथवा उसका अध्यक्ष परम आकाश में निवास करता है कि नहीं, इस वात को कौन जानता द ? इस उपराफ़त एक ही ऋचा के आधार से जाना जा सकता दे कि जगत्‌ के निंमित्त अथवा' उपादान कारण के सम्च॑न्ध में काइ निश्चयात्मकरूप से जानता नहीं ऐसा ही अभित्रोय वेदंकालीन ऋषियों का भी था । भीमांसा दर्शन से भी यहो ध्वनित्त होता है । पूर्व मीमांसा- कार जमिनी ऋषि की मीसांसा दर्शन की पुस्तक 'शास्त्रदीपिका तथा श्लोक वातिकः का यदि मनन किया जावे तो स्पष्ट रूप ল লাল होता है कि सप्टि तथा इसके कह त्व फी विचारणाशओों में इस ऋषि ने गतानुगतिकता का अवलम्बन नहीं किया हैं! अथोत्‌ लकीर का फक्कीर नहीं बन यया है। मीसांसा दर्शन ने अन्य दशनों की सम्पूर्ण दलीलों तथा शंकाओं का विश्लेषण करके सिद्ध किया & कि--सष्टि की आदि होवे ऐसा कोई काल नहीं £,जगत्‌ सर्वदा इसी प्रकार का ही हैं । इस प्रकार का कोई समय भूत काल में आया नहीं, जिसमें कि यह संसार किसी रूप में विद्यमान न रहा दो इस ही प्रकार स इश्वर-कर्तृल्ल के सम्बन्ध में भी अन्य सम्पूण दशनकारों ने इस प्रकार कह दिया हैं कि इश्चर स्वयं जन्म-मरण रहित है, वह दूसरे पदार्थों को उत्पन्न नहीं करता है, तथा यदि उत्पन्न करने की इच्छा करतां है ता एक ज्ञग में ही सब छुछ कर सकता हैं । जब कि वह सब शक्रिमान है तो क्रम-क्रम से बिलम्ब करके किसलिये




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