अद्वितीय चक्षु | Adviteey Chakshu
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
50
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about अभय कुमार जैन शास्त्री - Abhay Kumar Jain Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पहले कहा कि सवं वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है । अरव कहते हैं
कि तुझे अपनी वस्तु को देखना हो तो पर्यायाथिक रख को सर्वथा
वन्द करके, सुली हुई द्रव्याथिक चक्षु से देख | पर्यायाथिक श्राँख
वन्द करके, पर को देख - ऐसा नही कहा | यहाँ तो अमृतस्वरूप
भगवान आत्मा को देखने की वात हैँ। सन््तो ने तो श्रमृत बरसाया
हैं, परन्तु अरे! जगत को उसकी दरकार कहाँ है ?
भगवान । तुक मे सामान्य भ्रौर विशेष -ऐसे दो प्रकार है।
यहाँ बात तो सभी द्रव्यो की करना है, परन्तु जीव मे घटित करके
समभाया गया है।
अमृतचन्द्राचायंदेव की टीका मे स्पष्ट नहीं कहा, परन्तु
जयसेनाचार्य की टीका मे स्पष्ट कहा है। सर्वंद्रव्येघु यथासंभव
ज्ञातव्यमित्यर्थं: - ये जयसेनाचार्यक्रत टीका के अन्तिम शब्द हैं।
भाई | यह तो घैयवान पुरुष का काम हैं। समयसार कलशटीका
में कहा है कि निभृत अर्थात् स्वरूप मे एकाग्र होनेवाले निश्चिन्त
पुरुषो द्वारा इस वस्तु का विचार किया जाता ह ।
पहले 'पर्यायाथिक चक्षु को सर्वेथा बन्द करके' - ऐसा कहकर
जोर दिया और श्रव उससे भी श्रधिक जोर देने के लिए कहते है -
जब मात्र खुली हुई द्रव्याथिक चक्षु के द्वारा देखा जाता है।
ज्ञान को इसप्रकार खोलकर देख कि द्रव्य दिखाई दे। मात्र खुली
हुई द्रव्याथिक चक्षु द्वारा - ऐसा कहा हूँ न ? अर्थात् द्रव्य को देखने
वाले प्रगट ज्ञान द्वारा देख | जब पर्याय को देखना बन्द कर दिया,
तब स्वद्रव्य को देखनेवाला ज्ञान प्रगट हुआ । द्रव्य को जो नय देखता
हैं - ऐसा नय प्रगट हुआ ।
जब पर्यायाथिक चक्षु को सर्वया वन्द करके मात्र खुली हई
द्रव्धाथिकं चक्षु के हारा देखा जाता है; तव नारफपना, तिर्यञ्चपना,
ললুত্সঘলা। ইলঘলা श्रौर सिद्धपना - पर्यायस्वरूप विशेषो सें रहुनेवाले
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