निजामृतपान | Nijamratpan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जा रहा है । सहज अपनी स्वाभाविक गति से । अद्भुत है । अननुभूत है । विकार नही, निविकार है। तप्त नही, क्लान्त नही । तृष्त है, शान्त है 1 जिसमे नही ध्यान्त है । जीवित है। जागृत भी नितान्त दै । श्रपने मे विश्रान्त है । यह विश्रृति ! झविकल, श्रनुभूति ! ऐसे ज्ञान की शुद्ध परिणिति का ही यह्‌ परिपाक है, कि उपयोग का द्वितीय पहलु, दर्शन ने अपने चमत्कार का परिचय देना, प्रारम्भ किया है । भ्रव भेद पतभड होता जा रहा है, भ्रभेद की वसन्त क्रीडा प्रारम्भ । द्वैत के स्थान पर গত তথ आया है | विकल्प मिटा, श्रविकल्प उठा । आर-पार हुआ, तदाकार हुआ निराकार हुमा, समयसार हृश्रा वह्‌ 11 * “मैं में सब, सव मे मैं” प्रकाश में प्रकाश का अवतरश । विकाश में विनाश उत्सगित होता हुआ, सम्मिलित होता हुआ, सत्‌ साकार हो उठा । आकार मे निराकार हो उठा। इस प्रकार उपयोग की लम्बी यात्रा मत्‌, त्वत्‌ भौर तत्‌ को चीरती हुई, पार करती हुई, भ्राजं 111 सतु मे विश्रान्त है । पूर्ण काम है । अभिराम है । हम नही, तुम नही, यह नही, वह नही, मैं नही, तू नही सब घटा, सब पिठा, सब मिटा, केवल उपस्थित सत्‌, सत्‌ सत्‌ सत्‌ है ! है ! डै! है!




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