निजामृतपान | Nijamratpan
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
138
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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सहज अपनी स्वाभाविक गति से ।
अद्भुत है ।
अननुभूत है ।
विकार नही,
निविकार है।
तप्त नही,
क्लान्त नही ।
तृष्त है,
शान्त है 1
जिसमे नही ध्यान्त है ।
जीवित है।
जागृत भी नितान्त दै ।
श्रपने मे विश्रान्त है ।
यह विश्रृति !
झविकल, श्रनुभूति !
ऐसे ज्ञान की शुद्ध परिणिति का ही
यह् परिपाक है,
कि उपयोग का द्वितीय पहलु,
दर्शन ने अपने चमत्कार का परिचय देना,
प्रारम्भ किया है ।
भ्रव भेद
पतभड होता जा रहा है,
भ्रभेद की वसन्त क्रीडा प्रारम्भ ।
द्वैत के स्थान पर
গত তথ आया है |
विकल्प मिटा,
श्रविकल्प उठा ।
आर-पार हुआ,
तदाकार हुआ
निराकार हुमा,
समयसार हृश्रा
वह् 11
* “मैं में सब,
सव मे मैं”
प्रकाश में प्रकाश का अवतरश ।
विकाश में विनाश उत्सगित होता हुआ,
सम्मिलित होता हुआ,
सत् साकार हो उठा ।
आकार मे निराकार हो उठा।
इस प्रकार
उपयोग की लम्बी यात्रा
मत्, त्वत् भौर तत् को
चीरती हुई,
पार करती हुई,
भ्राजं 111
सतु मे विश्रान्त है ।
पूर्ण काम है ।
अभिराम है ।
हम नही,
तुम नही,
यह नही,
वह नही,
मैं नही,
तू नही
सब घटा,
सब पिठा,
सब मिटा,
केवल उपस्थित
सत्, सत् सत् सत् है ! है ! डै! है!
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