मानव धर्म | Maanav Dharm
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
114
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १७ )
कोई घुकसान है या नहीं। बहुत धार मनुष्य क्रोध था दे पके
विकारमें इस बातका स्वयं निर्णय नहीं फर सकता। ऐसी स्थिति-
में उसे चाहिये कि चह आसपासके किसी सत्पुरुष (जिसपर
उसकी भ्रद्धा हो ) के पास जाकर उससे पूछे कि अमुक मलुष्य-
के अमुक कार्यसे वास्तयमे मेरी कोई हानि है या नहीं ! सत्पुरुष-
की रागद्व परहित धुद्धिसे बड़ा सुन्दर निर्णय होता है, यदि
घट थद फट दैः कि दसम तुम्हारी फोर हानि नदीं तच तो क्रोध
फरनेका कोई कारण ही नहीं रदं जता । कदाचित् उनके विवेक-
से भी यह साबित हो जाय कि उक्त कार्यसे घास्तवमें हमारी हानि
दोगी तब उसका फारण दूढुना चाहिये, बिना फारणके कार्य
. नहीं होता, यह सिद्धान्त है, फिर उसने हमारा घुकसान क्यों
किया ? क्या हमने कभी उसको जान-बुमकंर नुकसान पहुंचाया
था था कभी उसके लिये अनिष्ट-कामना की थी ? यदि कभी ऐसा
नहीं किया ती क्या हमसे कभी कोई ऐसी भूल हुई थी जिससे
उसको (नुकसान पहुंचा हो ? यदि फभी ऐसा' हुआ है तो बद
क्या घुरा करता है ! कया हमारा जुकसान करनेवालेके लिये
हमारे मनमें कभी प्रतिहिंसाके भाव नहीं आते ! यदि आते हैं तो
हमें क्या अधिकार है कि हम अपने ही जैसे एक मन॒ष्यके हृद्यमें
अपने ही सद्ृश भावोंके उदय होनेपर उसका घुरा चाहें या फरे !
हमें चाहिये कि अपनी भूलके लिये पश्चात्ताप करें और शुद्ध
तथा सरल चित्तसे विनयपूर्वक उससे क्षमान्याचना करें | बार
बार श्चमा-याचना करनेपर यह सम्भव नदीं कि वह हमें क्षमा
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