मानव धर्म | Maanav Dharm

Maanav Dharm by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १७ ) कोई घुकसान है या नहीं। बहुत धार मनुष्य क्रोध था दे पके विकारमें इस बातका स्वयं निर्णय नहीं फर सकता। ऐसी स्थिति- में उसे चाहिये कि चह आसपासके किसी सत्पुरुष (जिसपर उसकी भ्रद्धा हो ) के पास जाकर उससे पूछे कि अमुक मलुष्य- के अमुक कार्यसे वास्तयमे मेरी कोई हानि है या नहीं ! सत्पुरुष- की रागद्व परहित धुद्धिसे बड़ा सुन्दर निर्णय होता है, यदि घट थद फट दैः कि दसम तुम्हारी फोर हानि नदीं तच तो क्रोध फरनेका कोई कारण ही नहीं रदं जता । कदाचित्‌ उनके विवेक- से भी यह साबित हो जाय कि उक्त कार्यसे घास्तवमें हमारी हानि दोगी तब उसका फारण दूढुना चाहिये, बिना फारणके कार्य . नहीं होता, यह सिद्धान्त है, फिर उसने हमारा घुकसान क्‍यों किया ? क्या हमने कभी उसको जान-बुमकंर नुकसान पहुंचाया था था कभी उसके लिये अनिष्ट-कामना की थी ? यदि कभी ऐसा नहीं किया ती क्या हमसे कभी कोई ऐसी भूल हुई थी जिससे उसको (नुकसान पहुंचा हो ? यदि फभी ऐसा' हुआ है तो बद क्या घुरा करता है ! कया हमारा जुकसान करनेवालेके लिये हमारे मनमें कभी प्रतिहिंसाके भाव नहीं आते ! यदि आते हैं तो हमें क्या अधिकार है कि हम अपने ही जैसे एक मन॒ष्यके हृद्यमें अपने ही सद्ृश भावोंके उदय होनेपर उसका घुरा चाहें या फरे ! हमें चाहिये कि अपनी भूलके लिये पश्चात्ताप करें और शुद्ध तथा सरल चित्तसे विनयपूर्वक उससे क्षमान्याचना करें | बार बार श्चमा-याचना करनेपर यह सम्भव नदीं कि वह हमें क्षमा द्‌ ^




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