महाजनवंश मुक्तावली | Mahajanvansh Muktavali

Book Image : महाजनवंश मुक्तावली  - Mahajanvansh Muktavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अस्तावना, १५७ ष्योंका नाम पचित प्रथम हआ, उनेमि आज्ञाकर्ता आचार्य कहकाये, चाचना देनेवाठे उवद्चाय [ उपाध्याय | कहलाये, उवज्ञायजञब्द्‌ जैनसून पराङकतक्ा ই) वद बह श्चती आर्ञं कलायै, कल्याणकारी तपकर्तां कल्याण कहलाये कित्तार अयुक्त व्याख्याकर्ता, ज्यास कराये, आगे जिनोके वाक्य हितावह वह पुरोहित कहलाये, एवंशांति उन माहनोंमै नानाकारणोंसे होती गई उसके अनंतर इनोमिं मेद्‌ हआ एे्ा जैन धर्म्मका म॑तन्य है, तदनत्तर दिनोँदिन छदि होनेंसे देश २ मे मिन्न मित्र वसनेंसें, देशोंकी अपेक्षा जाती स्थापित होगई यथा सारस्वता कान्यकुब्जा, गोंडाउत्कल माौथेला, पचगाड इतिक्षाता, विन्ध्यो उत्तर वासिन- १ इसप्रकार दृविडदेशकी अपेक्षा पंच द्वाविड कहलाये सर्व ब्राह्मणप्राय अपनेकी इनद्शोंके अँतर्गतही मतव्य करते हैं, जिसमे सर- स्वती नदीके शमीपवर्ती' सारस्वत कहलाये कनोजदेशबवास्तन्य क्‍नोजिये क्हलाये, ( सरवर ) केशमीपवतीं सरवरिये, गो डदेशवासी गौड, गुजरातके वास्तव्य गुज्जर गोड, उत्क देदावास्तन्य उत्कल ककाये, भिथिठावास्तन्य, मैथिल कदकाये संखारड्डीऋषिकी शेतान शंखबाल, पाराम्वरकेपारीक, दाधाचके दायमै, ইভান शामीपवर्ती खेंडेलवाल, मुगकऋषिकेमागव ( हूसर ) इत्यादि अनेक भेदांतर गौछोके इससमय हे, द्वाविड, कर्णाटी, तैलिग, महाराष्ट्र, औदिच्य, गुच्नर, इनगुज्नरके मेदांतर, श्रीमाली, पुष्करणे, गृगली, तेलिगके मेदातर मह, गोस्वामी, इत्यादि है साकलष्धीपी भोजकः, राजगुरुप्रोहित, भोजक, चोंबे, सनाढ्य, पांढे इत्यादि <४ भेदातर माने जाते है, जिन २ जातिकी पुरानेंमे, उत्पत्ति लिखी है वह पीछेब॑न सिद्धहेति है, ओर जिघकी उत्पत्ति पुराणे नहीं छिसी हे, वह सनातन प्राचीन बाह्मण सिद्ध हेति रै, ( उदाहरण ) पुष्करण त्राह्मणोंकी उत्पत्ति किसीमी देवतास, अमुक ऋषिके रतान रसा छिखत नही वेखनेमे आता, इसन्याय, जवते बाह्मणवर्णकी स्थापना प्रचित हुई तव ही पोसह करना बाह्मण ये; ये वात्कार होता हे, सूर्यचदराविगरह, इद्रादिकदिन्य शरीरधारी देवोकी तेजोम्ई परतिढाया उनकी ये पहचान हे, उच्च द्रजेंके देव, मनुष्य छोककी इर्गीधिके कारण, एकाएक मृत्युड्ेकम, आते नहीं. तपेश्वरीके तपस्तिद्धिसें, वा पूर्वमवके स्नेहके ध्यानके वस आते हैं, तो भूमिसे स्पर्श उनोंका पांव नहीं होता, अत नबी अगुरु पृथ्वीस अघर रहते ই नहीं उमकारते, पुष्पमाल कंठस्थ नही म्लान होती, मनमि धोरे कार्य करने समर्थ, इतने चिन्ह दिखाई दैतों, देंव समझों, अन्यथा मनुष्य, मनुष्यलोकमैं तथा वागवगीचोमैं, जो देव रहते है, वे न्यतर जाति वनन्यैतर जाति एवं १६ उनमे উর शाटी न्यंतर देवमी मृत्युलोक पूर्वोक्तकारणबिना नहीं अति, देव रतिक्रीडा करते, पूर्णवा्ति, वायुके ३.४




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