ईशावास्योपनिषद् | Ishavasyopanishad

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Ishavasyopanishad by स्वामी निकलंग भारती - Swami Niklang Bharti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ २ © ~~ बना लेंगे। लेकिन राख रहेगी। हम उसे चाहे सागर में फेंक दें, वह पानी में घुल कर डूब जायेगी--दिखायी नहीं पड़ेगी, लेकिन रहेगी | हम उसके रूपों को मिटा सकते हैं, लेकिन उसकी इजनेस, उसके होने को नहीं मिटा सकते । उसका होना कायम रहेगा । हम कुछ भी करते चले जायें, उसके होने में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा । होना बाकी रहेगा । हाँ, होने को हम शकल दे सकते हैं। हम हजार शकलं दे सकते हैँ । हम नये-नये क्प श्रौर आकार दे सकते हैं। हम आकार बदल सकते हैँ, लेकिन जो है उसके भीतर, उसे हम नहीं बदल सकते । वह्‌ रहेगा । कल मिट्टी थी, आज राख है । कल लकड़ी थी, आज कोयला है । कल कोयला था, आज हीरा है । लेकिन है । इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । है कायम रहता है। परमात्मा का अर्थ है सारी चीजों के भीतर जो हि-पन ( 1501658 ) है जो अस्तित्व ( #152८71८९ ) है, होना है, वही । कितनी ही चीजें बनती चली जायें उस होने में कुछ जुड़ता नही । और कितनी ही चीजे भिटती चली जायें, उस होने में कुछ कम होत। नहीं । वह उतना का ही उतना--वही का बही-- अलिप्त और असंग, और अस्परशित । पाती पर भी हम रेखा खींचते हैं तो कुछ बनता है, हालाँकि मिट जाता है बनते ही। लेकिन परमात्मा पर इस सारे अस्तित्व से इतनी भी रेखा नहीं खिंचती । इतना भी नहीं वनता है । ` इसलिए उपनिषद्‌ का यद्‌ वचन कहता है कि प्ण से, उस भूर्ण से यह परणं निकला । वह अज्ञात है, यह ज्ञात है । जो हमें दिखायी पड़ रहा है वह उससे निकला जो नहीं दिखायी पड़ रहा है। जिसे हम जानते हैं वह उससे निकला जित्ते हम नहीं जानते हैं । जो हमारे अनुभव में आता है, वह उससे निकला जो हमारे अनुभव में नहीं आता है । इस वात कौ भी ठीक से ख्याल में ले लैना चाहिए | जो भी हमारे अनुभव में आता है वह सदा उससे निकलता है जो हमारे अनुभव में वहीं आत । और जो हमें दिखायी पड़ता है, वह उससे निकलता हैं जो अदृश्य है और जो हमें ज्ञात है, वह अज्ञात से निकलता है । और जो हमें परिचित है वह अपरिचित से आ रहा है । एक दीज हम बो दें और वीज से एक बृक्ष निकल आता है । अगर वीज को हम तोड़ें और तोड़ें और खण्ड-खण्ड कर डालें तो कहीं भी वृक्ष का कोई भी पता नदीं चलता है । कहीं कोई पता नहीं चलता । कीं वे फूल नहीं मिलते जो कल निकल आयेंगे । कहीं वे पत्ते नहीं दिखायी पड़ते जो कल निकल आयेंगे । वे कहाँ से आते हैं ? वे अदृश्य से आते हैं । वे अदृश्य से निर्मित हो जाते हैं। भ्रतिपल अदृश्य दृश्य में रूपान्तरित होता रहता ह श्नौर दश्प अदश्य में खोता चला जाता है । प्रतिपल सीमाओं में श्रसीम आता है और प्रतिपल सीमाओं से असीम वापस लोट जाता है 1 ठीक ऐसे ही जैसे हमारी इवास




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