ईशावास्योपनिषद् | Ishavasyopanishad
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
336
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ २ © ~~
बना लेंगे। लेकिन राख रहेगी। हम उसे चाहे सागर में फेंक दें, वह पानी में
घुल कर डूब जायेगी--दिखायी नहीं पड़ेगी, लेकिन रहेगी | हम उसके रूपों को
मिटा सकते हैं, लेकिन उसकी इजनेस, उसके होने को नहीं मिटा सकते । उसका
होना कायम रहेगा । हम कुछ भी करते चले जायें, उसके होने में कोई अन्तर नहीं
पड़ेगा । होना बाकी रहेगा । हाँ, होने को हम शकल दे सकते हैं। हम हजार
शकलं दे सकते हैँ । हम नये-नये क्प श्रौर आकार दे सकते हैं। हम आकार बदल
सकते हैँ, लेकिन जो है उसके भीतर, उसे हम नहीं बदल सकते । वह् रहेगा ।
कल मिट्टी थी, आज राख है । कल लकड़ी थी, आज कोयला है । कल कोयला
था, आज हीरा है । लेकिन है । इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । है कायम रहता
है। परमात्मा का अर्थ है सारी चीजों के भीतर जो हि-पन ( 1501658 ) है
जो अस्तित्व ( #152८71८९ ) है, होना है, वही । कितनी ही चीजें बनती
चली जायें उस होने में कुछ जुड़ता नही । और कितनी ही चीजे भिटती चली
जायें, उस होने में कुछ कम होत। नहीं । वह उतना का ही उतना--वही का बही--
अलिप्त और असंग, और अस्परशित । पाती पर भी हम रेखा खींचते हैं तो कुछ
बनता है, हालाँकि मिट जाता है बनते ही। लेकिन परमात्मा पर इस सारे अस्तित्व
से इतनी भी रेखा नहीं खिंचती । इतना भी नहीं वनता है । `
इसलिए उपनिषद् का यद् वचन कहता है कि प्ण से, उस भूर्ण से यह परणं
निकला । वह अज्ञात है, यह ज्ञात है । जो हमें दिखायी पड़ रहा है वह उससे
निकला जो नहीं दिखायी पड़ रहा है। जिसे हम जानते हैं वह उससे निकला
जित्ते हम नहीं जानते हैं । जो हमारे अनुभव में आता है, वह उससे निकला जो
हमारे अनुभव में नहीं आता है । इस वात कौ भी ठीक से ख्याल में ले लैना
चाहिए | जो भी हमारे अनुभव में आता है वह सदा उससे निकलता है जो हमारे
अनुभव में वहीं आत । और जो हमें दिखायी पड़ता है, वह उससे निकलता हैं जो
अदृश्य है और जो हमें ज्ञात है, वह अज्ञात से निकलता है । और जो हमें परिचित
है वह अपरिचित से आ रहा है । एक दीज हम बो दें और वीज से एक बृक्ष निकल
आता है । अगर वीज को हम तोड़ें और तोड़ें और खण्ड-खण्ड कर डालें तो कहीं
भी वृक्ष का कोई भी पता नदीं चलता है । कहीं कोई पता नहीं चलता । कीं
वे फूल नहीं मिलते जो कल निकल आयेंगे । कहीं वे पत्ते नहीं दिखायी पड़ते जो
कल निकल आयेंगे । वे कहाँ से आते हैं ? वे अदृश्य से आते हैं । वे अदृश्य से
निर्मित हो जाते हैं। भ्रतिपल अदृश्य दृश्य में रूपान्तरित होता रहता ह श्नौर
दश्प अदश्य में खोता चला जाता है । प्रतिपल सीमाओं में श्रसीम आता है और
प्रतिपल सीमाओं से असीम वापस लोट जाता है 1 ठीक ऐसे ही जैसे हमारी इवास
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