दिव्य जीवन | The Life Divine
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
524
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)0 दिव्य जीवन
इनका उतना परस्पर विरोध नहीं, जितना कि परस्पर संपूरण; ये ब्रह्मके
पर्यायक्रसे आनेवाले वैभव नहीं है--ऐसा नहीं है कि अपनी सृष्टिमें
ब्रह्म अपने-आपको वहुत्वमें प्राप्त करनेके छिये एकत्वकोी चिर रूपसे खो
देता हो, और अपने-आपको बहुत्वमें न खोज पाकर, एकत्वकी प्राप्तिके
लिये बहुत्वको पुनः: खो देता हो,--वरन् ये ब्रह्मके दोहरे और सहवर्ती
वैभव हैँ जो एक दूसरेकी व्याख्या करते हैं; ये कोई ऐसे विकल्प नहीं
जिनमें परस्पर सामंजस्य वैठाना आशासे परे हो, वरत् उस एक ही
सद्वस्तुके दो चेहरे हैँ, जिनमेंसे प्रत्येकको केवछ पुृथक्-पृथक् जाँच
कर नहीं, अपितु दोनोंकी साथ-साथ अनुभूति करके हम उस सद्वस्तु'
तक पहुँच सकते हैं;--यथपि ऐसी पृथक् जाँच भी ज्ञानकी प्रक्रियाका
एक न्याय्य, यहाँ तक कि अनिवार्य डग या अंग भी हो सकती है।
ज्ञान , निस्संदेह उस 'एक॑'का ज्ञान है, 'सतृपुरुष'की उपलब्धि है और
अज्ञान है सतूपुरुष'का आत्मविस्मरण, वहुत्वमें पृथकत्वका अनुभव और
संभूतियोंकी ठीकसे न समझी गयी भूलमुर्लयामें रहना या चक्कर छूगाना:
परंतु इसका उपचार तब हो जाता है जब संभूतिगत जीव वर्धित होता
हुआ उस सतृपुरुषका ज्ञान, उस सतूयुरुषकी संवित् प्राप्त करता है जौ
बहुत्व-मावमें ये सकछ भूत हो जाता है, और ऐसा इस कारण हो सकता
है कि उनका सत्य उसकी कालातीत सत्तामें पहलेसे विद्यमान है।
ब्रह्मका संपूर्ण ज्ञान ऐसी चेतना है जिसमें ये दोनों साथ अधिकृत रहते
हैं, और इनमेंसे किसीका भी ऐकांतिक अनुसरण सर्वंगत सद्वस्तुके
सत्यके किसी एक पहलूकों दृष्टिसि अवढद्ध कर देता है। समस्त संमूतियोंसे
अतीत सतृपुरुषकी प्राप्ति द्वारा हमें विश्वजीवनकी आसक्ति और अज्ञानके
वंषनोंसे स्वतंत्रता मिछती है और उस स्वतंत्रता द्वारा संभूति तथा विश्व-
जीवन पर मुक्त अधिकार होता है। संभूतिका ज्ञान ज्ञानका अंग है;
वह॒ अन्नानवत् केवल इस कारण कार्य करता है कि हम उसमें बंदी
होकर रहते हैं, अविद्यायां अंतरे, सत्पुरुषके 'एकत्व'को गृहीत नहीं रखते
जो कि उसका आधार, उसका उपादान, उसका आत्मा और उसकी
अभिव्यक्तिका कारण है, और जिसके विना संमूति संमव नहीं हो
सकती थी ।
वस्तुतः, ब्रह्म॒ केवर संबंधोंसे अतीत, अछक्षण एकत्वमें ही नही,
विश्व-जीवनके वहुत्वके अंदर भी एक है! विभाजनकारी मनकी क्रियाओंके
अति संविद् रहता हुआ, परंतु उससे सीमित न होता हुआ, ब्रह्म अपने
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