छायावाद विश्लेषण और मूल्यांकन | Chayavad Vishleshan Aur Mulyankan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
279
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( १० .) क् क्
शक
---( १ } धूमिलता या अस्पष्टता ( २ ) बारीकी या गुम्फन की सूुक््मता,औरं ( ३ ) कीरप-
निकता ओर कल्पना-वंभव। ? १. ¦ । + 8०
¦ ( १२ ) डा° सुधीनद्र ^ চা च 0
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ये छायावाद को प्रेम, प्रकृति, सवं चेतनवाद, निगृढ़ वेदना, विस्मय भावना. त्र परः ¦ ह
तस्व बोध, नवीन अभिव्यंजना प्रणाली आदि कई विकशेषताओं से संयुक्त एक विशिष्ट ५ ये
प्रवृति मानते हैं। उनका विचार हैं कि “छायांवाद में वस्तुतः मानसिक भाव
प्रतीकवाद का विधान होता है। उसमें हृदय की नाना भावनाओं और अनुभूतियों को प्रकृति
के अथवा दुदय-जगत कं दूसरे प्रतीको द्वारा व्यंजित किया जाता है। तब कवि' की अंत
নাগনা का बहियंत प्रतीक-प्रतिबिन्न हो जाता है ॥ उसमें कवि की आश्ा-निराशा व्यथा-
वेदना, प्रेम-प्रणय की संश्लिष्ट भावनाओं की छाया डोलती रहती है । * आगे वे लिखते
हैं, “अब कविता में छायावाद! और! “रहस्यवाद' भिन्न हो गये हैं। वस्तुत: इन दोनों में
अंतर केवल 'दर्दात' ( चितन: ) के क्षेत्र में है।..यह स्मरणीय . है (कि 'छायावाद! और
'रहस्यवाद' केवल काव्य-शली ही नहीं हैं--वे वस्तुतः: विद्यष काव्य-दृष्टियाँ (20०६1०-
०७५1००:) हैं । ये दृष्टियाँ वस्तुत: भाव लोक पर अवलम्बित हैं । छायावाद” के रूप में
कवि की दष्टि 'स्व” के आत्म-तत्त्व पर, सृष्टि ( प्रकृति ) की सम्पूर्ण भूमिका में, पड़ती है ।
और 'रहस्यवाद' में कवि की दुंष्टि 'स्वः के आत्मतत्त्व पर स्रष्टा ( पुरुष ) की भूमिका में,
पड़ती है| पहले में बह समस्त सृष्टि ( प्रकृति ) को अपनी सत्ता से' एकी भूत-- एक प्रोण-
तस्व से स्पंदित देवता है और दूसरे मँ बहु अपनी अत्ता को, परोक्ष सत्ताका तद्रप, तदाकार
भौर प्रतिरूप देखता है । ˆ.“ छायाव।द^में प्रकृतिं कं जड मं चेतनत्व की प्रतीतिही
आवध्यक है, ईदवर को प्रतीति महीं, परन्तु “रहस्यवाद में श्रकृति, में विश्व और मानव
मे परोक्ष तत्तव को अ्रतीतिं अनिवयं है।) 3 ककः
(१३) डं ° लक्ष्मीसागर काष्णेय :
इनका विचार है कि प्रथम महायुद्ध से द्वितीय महायुद्ध तक की कविता की मुल्य
प्रंवत्ति है - छायावाद | छायावाद में व्यक्तिवाद॑, गीतितत्त्व, लयात्मकता, मानसिकता और
अंग्रेजी के प्रभावादि का मिश्रण है। काव्य को वह विशिष्ट प्रवत्ति जिसमें व्यक्तिवादी भाव
नौयें प्रकट की जातीं हैं--जिसमें विषय नहीं, स्वथं कैविं ओर उसका राग-विराग प्रधोन
होता है, जिसमें प्रकृति चेतन सत्ता के रूप देखी जाती है, कवि प्रकृति पर अपनी भावनाओं
की आरोपण करता है । अभिव्वजना मे लाक्षणिकता, वक्रता, संगीत्राट्मकता आदि विशेषताये
हीती &-- वही छायवाद है ।४ '
- . $-जछायावादु का पसन, पृष्ठ ११, ढों० दैवराज ` ।
२-- दिन्नी कविता में युगानतर, पृष्ठ ३७३ -- ढॉ० सुधीर
--वही, पृष्ठ ३६६
४--पढ़िए -- हिन्दी साहिरय. का इतिहात ( संक्षिस संस्करण' -) --डढॉ० वाष्णय
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