परख | Parakh
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
168
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८ परख
विवाहसम्बन्धी विचार जत्र यह रुख पकड़ रे थे, तभी एक
लड़की, अजीब ढंगसे, इनके जीवनमें, अनजानमे ही, हिल-मिल
जा रही थी।
यह छड़की इनके ही गाँवकी है | पड़ौसमे ही घर है। गौँवका
पड़ोस शहरके पड़ोस जैसा तो होता नहीं, इस लिये वह मानो इनके
घर-की-ही जैसी दै ।
जबसे इन्होने होश सँभाला है, तभीसे वह इनके सामने आती
रही है | इनकी अओँखोके सामने वह नन्दी-सी वच्चीसे अव चौदह
वरसकी हो गई है | दिन थे, कभी इसे गोदी खिलाया था, बड़े चावसे
थपका थपका कर उसे सुछाते थे । फिर दिन आये, वह खेलने
खिलाने और चिढ़ाने मनानेके छायक हो गई | বন उसके साथ यह
कीतुक भी सब किया ।
इसी थीच एक दुर्घटना हो गई। उससे इनके इस खेलने-खिला-
नेके रससे भरे संयुक्त-जीबनका अंत ही हो गया होता । पर कहिये विधिका
विधान ही उल्टा पडा, या कहे कि अनुकूल पडा ! क्योंकि चौथे वर्षमें
उसका विवाह हो गया और पाँच वर्षकी होते-न-होते वह विधवा हो गई !
जव विवत्रा हो गई तो यह तो कैसे होता कि आठवीं छासमें
पटठनेवाठे छात्रको पता न चरता । पता तो चखा, पर यह “নিঘনাঃ-
विरोपण उन दोनोके वीचमे आकर खडा न हो सका । भटा उस एक
जरासी घटनासे उन दोनोको क्या मतट्ब जो एक दिन गजे-बाजे
और लड्ड-पूरियोकी ज्यौनारके साथ संपन्न कर दी गई थी ? और न
इन्हें एक दूर-दराजके श्रीमंत दृद्धके मर जानेसे ही कोई खास सम्बन्ध
जान पडा! इस लिये इन दोनोंकी दुनिया तो ज्यों-की-त्यों बनी रही |
उल्टे इस विधवा शब्दके विशेषणने दोनोंको और निकट छा दिया।
सकोरी स्कूलके दशम श्रेणीके यह छात्र-महाशय ,जब पार न पाते, तो
लड़कीसे कहते--' ओ, हो, विधवाजी | .... !
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