परख | Parakh

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Parakh  by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ परख विवाहसम्बन्धी विचार जत्र यह रुख पकड़ रे थे, तभी एक लड़की, अजीब ढंगसे, इनके जीवनमें, अनजानमे ही, हिल-मिल जा रही थी। यह छड़की इनके ही गाँवकी है | पड़ौसमे ही घर है। गौँवका पड़ोस शहरके पड़ोस जैसा तो होता नहीं, इस लिये वह मानो इनके घर-की-ही जैसी दै । जबसे इन्होने होश सँभाला है, तभीसे वह इनके सामने आती रही है | इनकी अओँखोके सामने वह नन्दी-सी वच्चीसे अव चौदह वरसकी हो गई है | दिन थे, कभी इसे गोदी खिलाया था, बड़े चावसे थपका थपका कर उसे सुछाते थे । फिर दिन आये, वह खेलने खिलाने और चिढ़ाने मनानेके छायक हो गई | বন उसके साथ यह कीतुक भी सब किया । इसी थीच एक दुर्घटना हो गई। उससे इनके इस खेलने-खिला- नेके रससे भरे संयुक्त-जीबनका अंत ही हो गया होता । पर कहिये विधिका विधान ही उल्टा पडा, या कहे कि अनुकूल पडा ! क्योंकि चौथे वर्षमें उसका विवाह हो गया और पाँच वर्षकी होते-न-होते वह विधवा हो गई ! जव विवत्रा हो गई तो यह तो कैसे होता कि आठवीं छासमें पटठनेवाठे छात्रको पता न चरता । पता तो चखा, पर यह “নিঘনাঃ- विरोपण उन दोनोके वीचमे आकर खडा न हो सका । भटा उस एक जरासी घटनासे उन दोनोको क्या मतट्ब जो एक दिन गजे-बाजे और लड्ड-पूरियोकी ज्यौनारके साथ संपन्न कर दी गई थी ? और न इन्हें एक दूर-दराजके श्रीमंत दृद्धके मर जानेसे ही कोई खास सम्बन्ध जान पडा! इस लिये इन दोनोंकी दुनिया तो ज्यों-की-त्यों बनी रही | उल्टे इस विधवा शब्दके विशेषणने दोनोंको और निकट छा दिया। सकोरी स्कूलके दशम श्रेणीके यह छात्र-महाशय ,जब पार न पाते, तो लड़कीसे कहते--' ओ, हो, विधवाजी | .... !




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