सार्ध्द शताब्दि स्मृति ग्रन्थ | Sadhur Shatavadhi Smrti Granth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) मारवाड़ी साथ भी बहुत बड़ी संख्या में यहां बस गया धा । नौहर साय कटाने वाले धमाल भौर ओसवार बन्वु यहां रुखनऊ, फजाबाद, बनारख आदि स्थानों से आक्र बसे । उनमें से अनेक दिल्ली, जयपुर और भूमनू से भी अ'्ए । श्री बद्रीदासजी मुक्रीम लखनऊ से आये थे। उनका उदय कलकते के जैन समाज के इतिहास में अपना विश्विष्ट स्थान रखता है । कलकते का श्री शीतलनाय भगवान का मन्दिर जो कि पारसताथ मन्दिर के नाम से प्रख्यात है आप ही का बनवाया हुआ है । उन्हों दिनों श्री दादांबाड़ी के पाछ्टव॑ में श्री सुखलाल जौहरी ने श्री महावीर जिनालय भौर श्रौ शीतलनाथ जिनालय के बगल में श्री गणेशीलारू कपूरचन्द खारड़ ने श्री चन्दाप्रभुजी के मन्दिर का निर्माण कर- वाया था । वर्तमान बड़े मन्दिर जी के स्थान मे पहले श्री घीरज- सिह जी जौहरी का निवास स्थान था) उन्होंने आदिनाथ स्वाभी का धर देहरासर बनवाया और बाद में संघ को भेंट कर दिया । इसो स्थान पर आज श्री जेन श्वेताम्बर पंचा- यतौ मन्दिर बना हुआ है । कलकत्ता के प्रसिद्ध बड़ाबाजार अंचल के सत्यनारायण पाकं के सन्तिकट १३६, काटन स्ट्रीट में स्थित है। जिस समय घर देहरासर था, श्री धीरज सिंहजी ने मुशिदिबाद से भगवान आद्विनाथ की प्रतिमा लाक अपने सेवन पूजन के लिए स्थापित की थी। यह प्रतिमा सम्बत्‌ १८५६ मिती वेशाख सुदी ३, बुधवार के दिन खरतर गच्ड्नायक श्री जिनचन्द्सू रिजी द्वारा प्रतिष्ठित एवं गोलछा अखेराम द्वारा निमित है। जिस पर निम्नोक्त अभिलेख उत्कीर्णित है--- “सम्यत्‌ १८५६ बेशाल मासे शुक्ल पक्षे बुधवासरे ३ तिथि भी ऋषभदेव स्वामी थियं प्रतिष्ठित श्री जिनचन्दरसुरिमिः बुहत्लरतरगच्छे कारितं अजीमगज- वास्तव्य गोलधा अखयरामेन ' यह प्रथम प्रतिष्ठा चम्पापुरी जिला भागलपुर में हुई थी और निर्माता अखयरामजी गोलछा ही सम्मवतः वहाँ से अजीमगंज ले आए थे उनसे प्रास कर श्री धीरजसिह जौ ने अजीमगंज से लाकर कलक मेँ विम्ब की स्थापना की जो वर्तमान रूप में अभी तक दूसरे वल्के मे विद्यमान है । इसकी स्थापना सम्बत्‌ १८५६ से १८६७ के बीच में हुई थी । आज हम जिसका सा शताब्दि महीत्सव मना रहे हैं वह इस मन्दिर का विशाल और शिखरबद्ध रूप है जिसके मूलनायक श्री शान्तिनाथ भगवान हैं । देहरासर के निर्माण के बाद श्री धीरजसिंह ने इस मकान को जेन संघ को सम- पित कर दिया । कलकत्ता जेन संध ने मन्दिर निर्माण का कायं प्रारम्भ किया । जैन संघ अपने उरकर्पं मेँ परम उप- कारी दादा साहब श्री जिनदत्तमूरिजी ओौर श्री जिनकुशरू घूरिजी की कृपा का ही सुफल मानता था और जहां. कहीं भी मन्दिरों के साथ-साथ उनकी चरण-प्रतिमाएँ विराजमान कर या अलग दादाबाड़ी का निर्माण करना अपना प्रथम कर्तव्य समझता था । कलकता जेन संध ने माणिकतल्ला के निकट एक विशाल भूमि खरीद कर दादाबाड़ी व बगीचे का तिर्माण कराया । सम्वत्‌ १८६७ आपाढ़ शुक्ल ६ बुघ- बार को पाश्व॑चन्धगच्छीय जेनानायं श्री लब्बिचन्द्रसुरिजी के कर कमलो से दादा साहब श्रो जिनदत्तमूरि, शरी जिन- कुशलसूरि, श्री जिनचद्धसूरि व श्री जिनभद्रमुरि के चरण




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