आधुनिक-हिंदी-साहित्य भाग दो | Aadhunik Hindi Saahitya Bhaag Do

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कलाका भारताय परिभाषा मीप्रण कर्म कर डालता है। समाज उसे नारकीय कहेगा, जाने किस-किस प्रकार दण्डित करना चाहेगा; किन्तु कलाकारका दृष्टिकोण सांसारिक दृष्टि कोस मिन्न है। वह दुष्कर्मसे घ्रणा करता है किन्तु दुष्कर्मके प्रति, उसकी बेबसीके कारण कलाकारको सहानुभूति है, उसका हृदय रो उठता है। इसी प्रकार किसी चोर, हत्यारे, कुलठा, सामान्या, स्वेच्छाचारी, ग्राततायी, ग्रत्याचारी इत्यादि -इत्यादिका पतन कलाकारकेलिए दयाका विपय है, करुणाका विपय है । प्रमकी टीस, मुहब्बतका दद जिसके कारण स्त्री पुरुपपर, पुरुष स्त्री पर, माता पुत्रपर, सवक स्वामीपर और भक्त भगवानपर, निछावर होजाता है किंवा, वही टीस जब उत्साहके रूपमें परिणत होकर युद्धवीरकों अपनी जानपर खेल जानेकेलिए प्रेग्त करती है, दानवीरकों श्रपना सर्वस्व देडालने केलिए उद्यत करती है वा दयावीरसें शरीर उत्सर्ग करादेती है, तं। प्रेमकी इस अमायिकतास भी, जिसमें आदश ओर सोन्दर्यका भेद नहीं रहजाता, कलाकार विगलित होउठता है और उसकी क्ृतिम एक तड़प कोंच्र उठती है | श्रथवा, यों कहिये कि प्रेमकी उस टीसस उसके हृदयकी एकतानता हो जाती है जिस वह अपनी ऋतिके मूत्त रूपम॑ अभिव्यक्त करता है। करुण ग्सकी यह व्यापक परिधि हम इतनी विस्ती् करसकते हैं कि उसमें सभी रसाका समावेश हाजाय | किन्तु, जा उतना माननेकेलिए प्रस्तुत न हो उनके लिए इतना दी तरलम्‌ हागा कि कलाकास्की प्रत्येक कृति एक सदानुभूतिमय अभिव्यक्ति है । कलाकारको यह तथ्य अवगत है कि अ्शोभनमें भी भगवानकी रचनाकी एक शोभा है, सुकुमारता है, जिसे शोभनके साथ निरखकर ही लीलामयक्री इस श्रनन्त लीलाका पूरा पूरा रस मिलसकता है । श्रथवा यों किये कि कलाकारकेलिए परमात्माकी रचना कहींसे भी श्रशं)।भन नहीं । इस तत्त्वको वह जानता-मानता ही नहीं बल्कि हमें प्रत्यक्ष कर दिखाता है। ऐसी रचनाकेलिए किसी दूसरे लक्ष्यकी अपेक्षा नहीं रहजाती वह स्वतः पूत्ति है| निरुद्देश्य निर्माण है, अतः कलाकेलिए कला है | कलाको रसात्मक अथवा रमणीय कृति बताकर हमारे यहाँ यही सिद्धान्त स्वीकृत हुआ है, यह कहनेमें मुझे तनिक भी आगा-पीछा नहीं । किन्तु, शर्त यह है कि वह कृति रसात्मक हो । कलाकार जिस प्रकार एक ५




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