हिंदी - काव्य में प्रगतिवाद | Hindi - Kavya Mein Pragtivad
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15 MB
कुल पष्ठ :
206
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ हिंदी-काव्य में प्रगतिवाद
सुख-स॒विधाओं की दृष्टि से ये नवीन व्यवस्थाएँ कर रही है, इस विचार
से तत्कालीन कवियों ने अपनी रचनाओं के द्वारा जनता के दे में
ओर राज्य के प्रति कृतशता-प्रकाशन में योग दिया ।
पर झीघ्र ही लोगों को विदित हो गया कि विदेशी सत्ता हमारे देश
का आथिक शोपण कर रही है। तब काव्य-जगत् में राज-प्रशस्ति के
साथ साथ देशभक्ति का खर भी ऊंचा और तीत्र होने लगा, जिसके
अंतर्गत देश की तत्कालीन दशा का विवरण भी दिया जाने लगा ।
भारत की अतुल संपत्ति जल्मार्ग से बहकर विदेश को जा रही है इसका
आमास भारतेंदु की इन प्रसिद्ध पंक्तियों में मिलता है--
अंगरेज-राज सुखसाज सजे सब भारी,
पे धन बिदेस चलि जात यहे अति ख्वारी।
इस काल के पहले इंगलेंड में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी।
ओद्योगिक उन्नति से वहाँ की पएूँजी बहुत बढ़ गई थी अतएवं उस
पूजी को लगाने के लिए नए बाजार की आवश्यकता हुईं। भारत हाथ
में था ही; यहाँ विदेशी पूंजी अधिकाधिक मात्रा में लगाई गई ।
आथ्िक शोषण का चक्र विशेष गतिमान हुआ | सन् १८६८ से ७८ के
बीच देश में कई अकाल भी पड़े । इस प्रकार आथिक अवस्था क्रमशः
शोचनीय होती गईं। कई स्थानों पर किसानों के विद्रोह भी हुए | नए
नए करों के बोझ से जनता दबती जा रही थी। धीरे धीरे विदेशी
शासन पर लोगों का विश्वास कम होने लगा । इधर सन् १८८५ ई० में
कांग्रेस को स्थापना हुई जिसने देश में नवीन चेतना का प्रसार किया।
इन सब आथिक ओर राजनीतिकि कारणों से जनता के कष्ट नित्यप्रति
बटते गए |
सामाजिक विचारों में मी कुछ सुधार हुए। पाश्चात्य शिक्षा के
परिचय ओर नवीन भावों के आगमन से समाज की कतिपय कुर्रातियों
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