महापुराणम् | Mahapuranam

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Mahapuranam by पत्रालाल जैन - Patralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रास्ताधिक ९, भतोको निःसार समभः लिया हे । वेदवाक्य भी सदाचारपोषक नहीं हें । तब गृहस्थाचायं उस श्रजेन भव्यको प्राप्त श्रुत श्राविका स्वरूप समभझाता हे और बताता हे कि वेद पुराण स्मृति चारित्र क्रिया मन्त्र देवता लिग शोर श्राहारादि शुद्धियां जहां वास्तविक भौर तास्विक दृष्टिसे बताई हे वही सच्चा धर्स हे। दादशांग- श्रुत ही सच्चा वेद हं, यज्ञादिहिसाका पोषण करनेवाले वाक्य वेव नहीं हो सकते । इसी तरह ग्रहिसाका विधान करनेवाले ही पुराण श्रौर धर्मशास्त्र कहे जा सकते ह, जिनमें वध-हिसाका उपदेश हे वे सब धर्तोके वचन हं । अ्रहिसाप्‌र्वक षटकर्म ही श्रा्यवृत्त हं श्रौर भ्रन्यमतावलम्बियोके द्वारा बताया गया चातुराश्नम- धमं भ्रसन्मागं ह । गर्भाषानादि निर्वाणान्त क्रिया ही सच्ची क्रिया हं, गर्भादिहमसानान्त क्रियाएँ सच्ची नहीं हे । जो गर्भाधानादि निवर्णिन्ति सम्यक्‌ क्रियाश्रोंमे उपयुक्त होते हे वे ही सच्चे मन्त्र हे, हिसादि पापकर्मोके लिये बोले जाने वाले मन्त्र वुमन्त्र हं । विश्वेश्वर श्रादि देवता ही शान्तिके कारणहे श्रन्य मांसवुसिवाले क्रूर देवता हिय हें । दिगम्बर {लिग ही मोक्षका साघन हो सकता हे, मूगचमं श्रादि धारण करना कूलिग हं । भांसरटहित भोजन हौ श्राहारशुद्धि हं । श्रहिसा ही एकमात्र शुद्धिका श्राधार हो सकता है, जहां हिंसा है वहां शुद्धि कंसी ? इस तरह गृरुसे सन्मागंको सुनकर वह भग्य जब सन्मागको धारण करनेके लिये तत्पर होता हं तब दीक्षावतार क्रिया होती है । इसके बाद श्रहिसादि व्रतोका धारण करना वुत्तलाभे क्रिया हं । तदनन्तर उपवासादिप्‌ वंक निन- पूजा घिधिसे उसे जिनालयमें पंचनमस्कार मन्त्रका उपदेश देना स्थानलाभ कहलाता हं । स्थानलाभ करनेके बाद वहु घर जाकर श्रपने धरम स्थापित भिभ्यादेवताश्रोका विसजंन करता हं ओर श्ञान्त देवताश्रोंकी पुजा फरनेका संकल्प करता हं । यह गणग्रहू किया हं । इसके बाद पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, वृढव्रत, उप्योगिता ध्रादि क्रियाश्रोके बाढ उपनीति किया होती ह जिसमे देवगुरुको सक्षीप्वेक चारित्र श्रौर समयके परि- पालनकी प्रतिज्ञा की जाती हं श्रौर ब्रतचिह्वके रूपम उपवीत धारण किया जाता हं । इसकी श्राजीविकाके साधन वही श्रायंषट्कम' रहते ह । इसके बाद वहू श्रपनी पवंपत्नीको भी जनसंस्कारसे दीक्षित करके उत्तके साथ पुनः विवाहसंस्कार करता ह । इसके बाद व्णलाभे क्रिया होती हं । इस क्रियाम समान प्राजीविका- वाले श्रन्थ श्रावकोंसे वह निवेदन करता हं कि मेने सद्धमे धारण किया, ब्रत पाले, पत्नीको जंनविधिसे संस्कृत कर उससे पुनः विवाह किया । मेने गुरुकी कृपाते शश्रयोनिसंभव जन्म श्र्थात्‌ माता-पिताके संयोगके बिना ही यह चारित्रम्‌लक जन्म प्राप्त किया हं । श्रव श्राप सब हमारे ऊपर श्रनुग्रह करं । तेव वे श्नावक उसे श्रपने वर्णमं मिला लेते हे और संकल्प करते हे कि तुम जेसा द्विज-ब्राह्मण हमें कहां मिलेगा ? तुम जसे शुद्ध द्विजके न सिलनसे हम सब समान आजीविका वाल भिवश्यादृष्टियोसे भी सम्बन्ध करते श्राये हे श्रब तुम्हारे साथ हमारा सम्बन्ध होगा । यह कहकर उसे श्रपने समकक्ष बना लेते ह । यह्‌ बणेलाभ क्रिया है। इसके बाद आये षटकमंसे जोविका करना उसकी कलचर्या क्रिया हें। धीरे धीरे ब्रत श्रध्ययन श्रादिसे पुष्ट होकर वह प्रायश्चित्त विधान श्रादिका विक्षिष्ट जानकार होकर मृहस्थाचायंके पदको प्राप्त करता है यह गृहीशिता किया है । फिर प्रशांतता, गृहत्याग, दीक्षाद्य भौर जिनदीक्षा ये क्रियाएं होती हैं। इस तरह ये दीक्षान्वय क्रियाएं हे । इन दीक्षान्वय क्रियाश्रोंमें किसी भी मिथ्यात्वी भव्यको भ्रहिसादि व्तोंके संस्कारसे द्विज ब्राह्मण बनाया हे श्रोर उसे उसो शरीरसे मुनिदीक्षा तकका विधान किया हें। इसमें कहीं भी यह नहीं लिखा कि उसका जन्म या शरीर कसा होना चाहिये ? यह भजेनोंको जन बनाना श्रोर उसे ब्रत संस्कारसे ब्राह्मण बनानेकी विधि सिद्ध करती हे कि जन परम्परामें वशुलॉसभ क्रिया गुण शोर कर्मके श्रनसार हें, जम्मके श्रनुसार नहीं । इसकी एक ही शर्त हू कि उसे भव्य होना चाहिये झौर उत्तकी प्रवृत्ति सन्मागंके ग्रहणकी होनी चाहिये। इतना ही जेनदीक्षाके लिये पर्याप्त हें। वह हिसादि पाप, बेद भ्रादि हिसा विधायक भूत भौर करर मांसव्‌सिक वेवताध्रोको उपासना धछयोडकर जन बन सकता है, जन हो नहों बराह्मण तकं बन जाता हें शोर उसी जन्मसे जन परम्पराकी सर्वोत्कृष्ट मुनिदीक्षा तक ले लेता हे। यह गुणकभेके भरन्‌ सार होनेवाली वणंलाभ क्रिया मनुष्यमात्रको समस्त समान धर्माधिकार देती हं । रब जरा क्रन्वय क्रियाभ्रोको देखिये--शत्र॑न्वय क्रियाएं पुष्य कायं करनेवाले जीर्वोको सन्मागं




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