कला की हष्टि | Kala Ki Hashti

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Kala Ki Hashti by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwatiprasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कला की दृष्टि “आज में ताश न खेलूँगा । मेरी इच्छा है कि में कुछ बातें करूँ, आप लोगों से ।**'भाई विष्णु, तुम ज़रा आराम से बेठ जाओ | बुके-बुके-्से मत देख पड़ो । में चाहता हूँ, तुम्हारा मुख मुझे फूल-सा खिला हुआ जान पड़े | बल्कि अच्छा हो, ज़रा-सा मुस्करा भी दो ।““ओर विनोद तुम अपने नाम को साथेक कर दिखाओ । खूब हुल्‍्लड़ मचाओ यहाँ-हृदय के पह्ठू खोल दो । जड़ो, ओर साथ ही मुकको भी, अपने साथ, उड़ा ले चलो ।““अरे ब्वॉय, चाय तो ले आ रे, ट्रे में। ओर देख, आमलेट भी लाना होगा !''आज तुम भी यह चीज़ खाना, विष्णु । हम लोग यहाँ जी-जान से एक हैं । में भेद




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