पत्रावली | Patraavali

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Patraavalii by स्वामी विवेकानन्द - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पत्राघलो किं यह एक सामाजिक नियम है--ग़ुण एवं कर्म से प्रसूत हे । यदि कोई नेष्कम्य एवं निर्गुणत्व को प्राप्त करना चाहता हो तो उसे अपने मन में किसी प्रकार का जाति-भेद रखना द्वानिकर है। इन मामला में गुरु के प्रसाद से मरे कुछ निश्चित विचार हैं, परन्तु यदि में आपके विचार जान सकं तो मै उनके आधार पर अपने कुछ मता की परिपुष्ट कर्‌ सकूगा ओर्‌ हष का संशोधन | मधुमक्खी के छन्त को बास से बिना कोचे हुए शाहद नहीं टपक सकता। अतः में आपसे कुछ प्रश्न और करूँगा। मुझको अज्ञ ओर बालक समझकर बिना किसी प्रकार का क्रोध किये कृपया यथाथ उत्तर देंगे। (१) वेदान्त-सूत्र में जिस मुक्ति का वर्णन हुआ दे, क्या उसमे ओर अवधूत-गीता तथा अन्य म्रंथों में वर्णित निर्वाण में कोई भेद है যা লহ? (र्‌) यदि ‹ जगद्‌व्यापारवजं प्रकरणाद संनिहित्वाच्च | '# इस सूत्र के अनुसार किसी को पृण ईश्वर प्राप्त नदीं हाता तौ नित्राण का वास्तव में क्‍या अथ है ! (३) यह ` कहा जाता दै कि चेतन्यदेव ने सवेमीम से पुरी में कहा, “में व्यास के सूत्रों को समझता हूँ। वे द्वेतात्मक हैं; परन्तु भाष्यकारों ने उन्हें अद्वैतात्मक बना दिया हैं यह बात समझ ---------~ -------~~-+~~ ५ इस सूत्र के अनुसार खष्टि, स्थिति ओर प्रलय इन तीनों कर्मा का कर्ता तो केवल ईश्वर दै। जो जीव मुक्त हो जाते हैं उन्हें इन उपयुक्त तीन शक्तियो फे अतिरिक्त सभी दैवी शक्तियो प्राप्त दो जाती है| १९५




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