उतरा | Utra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है रे 2 बहिरंतर्मुषी प्रवृत्तियों के विकास और सामंजस्य के आधार पर हो विश्वतंत्र को प्रतिष्ठित करना होगा । दोनों संचरणों की मान्यताओं को स्वीकार न करना अशांति को जन्म देना होगा । इसमें संदेह नहीं कि सभ्यता के विकासक्रम में जब हमारा मतुष्यत्व निखर उठेगा एवं जठर का संघर्ष उत्पादन-वितरण के संतुलन में निःशेष या समाप्तप्राय हो जाएगा, मनुष्य का वहिर्जीवन उसके अंतर्जीवन के अधीन हो जाएगा ; क्योंकि मनुष्य के अंतर्जीवन तथा वहिर्जीवन के सौन्दर्य में इतना प्रकारांतर हूँ जितना सुन्दर मांस की देह तथा. मिट्टी की निर्जीव प्रतिमा में ! --किन्तु यह कल का स्वप्त है । तयोकत गहन मनोविज्ञान-संबंधी निरुद्ध भावना, काम ग्रंथि आदि के परिज्ञान ने हमारी उदात्त भावना, आत्म-निप्रहू आदि को घारणाओं के अर्थ का अनयं कर दिया है । उन्नयन का अर्थ दसन या स्तंभन, संयम का आत्मपीड़न या निषेघ तथा भाव का मय पलायन हो गया है। उपचेतन अवचेतन के निम्न स्तरों को इतनी प्रधानता मिल गई हूं कि भव्यक्त या प्रच्छन्ल (सवलिमिनल) मन के उच्च स्तरों के ज्ञान से हमारा तरुण वूद्धिजीवी अपरिचित ही रह गया है; भारतीय संनोविदलेपक इड, लिबिडो तथा प्राण चेतना सत्ता ( फॉयिडियन स.इकी ) के चित्र-अवरण को चीरकर गहन शुभ जिज्ञासा करता हैं,-- 'केनेपित पतति प्रेवितं मनः केन प्राण: प्रयम: प्ंति युक्त: ? ' किन्तु हमारे « निष्प्ाण प्रेरणा दुन्य साहित्य में उपचेतन की मध्यवर्गीय रुगण प्रवृत्तियों का चित्रण हो जज सूजन कौशल की कसौटी बन गया है भीर वे परस्पर के अहूंकार-प्रदर्शन, छांछन, तया घात प्रतिघात का 'क्षेत्र वन गई हूं, जिससे हम कुंठित बुद्धि के साथ संकीगेंहृदय भी होते जा रहे हूँ। इस प्रकार की अनेक सरातियों तथा मिथ्या धारणाओं से आज हमारी सुजन- चेतना पीड़ित हैं और प्रगतिशील साहित्य का स्तर संकुचित होकर प्रतिदिन नीचे गिरता जा रहा है । हम पश्चिम की विचारधारा से इतने अधिक प्रभावित हैं कि अपनी ओर सुड़कर अपने देश का प्रशांत गंभीर, प्रसत्त मुख देखना ही नहीं चाहते । हममें अपनी सूसि के चिडिष्ट सानदीय पदार्य को समझने की क्षमता हो नहीं रह गई हूं । हम इस सदियों के खंडहर का बाहरी दयनीय रूप देख कर क्षुब्घ तथा विरक्‍त हो जाते हूं और टरसरों का बाहर से सेंवारा हुमा मुख देख




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