दास्तान-ए-नसरुद्दीन | Dastan-E-Nasarrudeen

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ॐ कष | के व्यापारियों के एक काफिले के साथ, जिसके पीछे वहु लग लिया था, उसने बुखारा की सरहद पार की । सफर के श्राठवें दिन, दूर गदं के धुन्ध में, इस बड़े और मशहूर शहर के ऊंचे নীলা दीखे। प्यास और गर्मी से पस्त अंदवालों ने फटे गलों से भ्रावाज लगायी और ऊंट श्रौर तेजी से आगे बढ़ चले । सूरज डूब रहा था। शहर के फाटक बन्द होने. से पहले बुखारा में दाखिल होने के लिए जल्दी करने की जरूरत थी । खोजा नसरुद्दीन कारवां में सबसे पीछे था---गदई के मोदे और भारी बादल में लिपटा हुआ.। यह उसके अपने वतन की पाक गर्ढे थी जिसकी खुशबू उसे दूर देशों की मिरी से ज्यादा श्रच्छी लग रही थी। छींकता, खांसता, वह बराबर अपने गधे ! से कहता जाता -- “ले ! अच्छा ले ! हम लोग आ ही पहुंचे । आखिर अपने | वतन भरा ही गये । इंशा अ्रल्लाहू, कामयाबी और मसरंत यहां हमारा इन्तजार| कर रही है ।” कारवां शहर की. चहारदीवारी तक पहुंचा तो पहरेदार फाठक बन्द कर रहे थे । “खुदा के वास्‍्ते हमारा इत्तजार करो !” कारवां का सरदार दूर से सोते का सिक्का दिखाता हुआ चिल्लाया । लेकिन तब तक फाटक बन्द हो गये । भतभनाहट कै साथ साकले लग गयीं । ऊपर ब्ुजियों पर लगी तोपों के पास पहुरेदार तैनात हो गये । ताजा हवा चल' निकली। धुन्ध-भरे श्रासमान में गुलाबी रोशनी खत्म हो गयी । नया, नाजुक दूज का चांद ग्रासमान से ककिते लगा । भुटपुटे की खामोशी मे अनगिनत मीनारों से, मुसलमानों को श्ञास की इबादत के लिए बुलाती हुईं मुश्नज्जिनों की तीखी, उदास, ऊंची आवाजें तैरती हुई झाने लगीं । जैसे ही व्यापारी और अंटवाले नमाज के लिए दीजानूं हुए, खोजा नसरुद्दीन अपने गधे के साथ एक तरफ को खिसक लिया । ४ इन' ताजिरों के पास तो कुछ है जिसके लिए वे खुदा का शुक्र करें, / “बह बोला, “शाम का खाना ये लोग खा चुके हैं और श्रभी ब्यालू करेंगे । ऐं' भेरे वफादार गधे ! तू और में अभी भूखे हैं। न शाम का खाना मिला है, ले रात का भिलेगा । भ्रगर अल्लाह हमारा शुक्रिया चाहता है, तो मेरे लिए पुलाब' की एक रकाबी और तेरे लिए एक गद्टर तिपतिया घास भेज दे । गधे को उसने सड़क के किनारे एक पेड़ से बांधा और पास ही एक। पत्थर का तकित लगाकर नंगी जमीन प्र पड़ रहा। ऊपर हाफ्फाफ झास- | मन में सितारों के चमकते हुए जाल' को देखने लगा। तारों के हर भंड को ५




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