ज्ञानामृत | Gyanamrat

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जशञानामृत प्रवचन १६ परमविश्राम देकर क्ृतार्य कर देता । स्वानुभवके लिये भूतार्थनयका साक्षात्‌ व अधृतार्थनय का परम्परया सहयोग--देखिये अपने आपके कल्याणकी बात स्वानुभवसे प्रकट होतो है। हमारा अन्तिम पोरुष स्वानुभव है । जहाँ स्वानुभव जगता है वहाँ संकट नही ठहरते । भव-भवके बाधे हुए कर्म निर्जोर्ण होते, मोक्षका मागं स्पष्ट इसके होता है ! परखो--स्वानुभवक। अर्थं क्या ? निज सहज चैतन्- स्वभावरूप स्वका अनुभव होना ओर बहुत सोधे सरल शब्दो मे यो समक्ष लीनिए कि लेसे हम नाना पदार्थोका ज्ञान किया करते है, बाहूरमे रहने वाले पदार्थो का खम्भा, दरी, चौकी, भीत आदिकका जो ज्ञनन किया जाता है तो इसका ज्ञान न होकर, इसका ज्ञान न कर एक ज्ञानस्वभावका ही ज्ञान बना रहे, ऐवा ज्ञान अगर कुछ क्षण बना रहता है तो बही कहलातो है स्वानुभवको दशा । जिस ज्ञानमें ज्ञानस्वरूप ही समाया हुआ है अर्थात्‌ जो ज्ञानव्यापार निज सहज ज्ञानस्वरूपका ही ज्ञान कर रहा है वह स्थति कहलाती है स्वानुमवकी स्थिति । अब आप समभझिये कि ऐसो परम असृतसय स्वानुभवको स्थिति क्‍या विकल्प द्वारा बनेगो ? विकल्प द्वारा तो न बनेगी । सगर स्वानुभवसे पहले क्या निविकल्प दशा रहती ? दोनो बातें समझनी हैं। स्वानुभव विकल्प द्वारा नहीं होता और स्वानुभव विकल्पके बाद होता है । तो 'स्वानुभवमें पहिले लिविकल्प दशा नही। सो इतना तो मानना ही होगा, फिर भी स्वानुभवसे ` पहले कोई विकल्प रहता तो है ही, इस बातको सना नहीं कर सकते हैं । अब उस विकल्पमें सोचना है कि वह विकल्प अगर विकल्प बढ़ाने वाला विकल्प है तो उसके बाद स्वानुभव नहं होता जर वह्‌ विकल्प विकल्पको समाप्त करने वाला चिक्त्पहै तो उस्र विकल्पक बाद स्वानुभव होता है। ऐसा कौनसा विकल्प है जो विकल्पको समाप्त फरनेकी पद्धति रखता . है इस ही विकल्पको कहते हैं भूतार्थनय । भूतार्थनय व स्वानुभवकी निकटता--इस प्रश्नगस्े ये दो नय हैं--अभृतार्थनय और भृतार्थथय। भृतार्थतथ भी विकल्परूप है और अभृतार्थनय भी विकल्परूप है, मगर भृत्तार्थनय तो चित्प समाप्त हो इस पद्धत्िसे विकल्प करता है, यह पद्धति अभूता्थंनयमे नही । अधिक से अधिक अभरता्थंनयका कला-कौशल है तो यह्‌ कि वह भुतार्थथी ओर पहुचा दे, इस तरह को पद्धति रहती है । तो भृतार्थनयका विषय है अखण्ड अवक्तव्य एक सहजभाव । देखिये भूताथं ओर स्वानुभव--इन दोनो का क्षेत्र निकट-निकट है^ पर सीमा जरूर पडी है भीतर । जैसे कोई दो खेत हो, है वे पास पास, मगर वे दो खेत कब कहलाते ? जब कही बीच में थोड़ी बहुत भौ सीमा हो । तो भूतार्थनय चिकल्प है, स्वानुभव अविकल्प स्थिति है। मगर भृतार्थे- नयके निकट है स्वानुभव । भृतार्थनयसे जाना गया एक अखण्ड निज सहज ज्ञानस्वभाव




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