समयसार - प्रवचन दूसरा भाग | Samaysaar - Pravachan (bhag - ii)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ দাই में भनुपम है। जो मुमुह्ु प्रथक्त জন্ম से विलण हैं, एव जिल्‍्दे उनझी निल्तर सगति दुष्प्राथ है-ऐसे मुमुज्ुझों को यह प्रवचन प्रनन्य भाषारमभूत हैं। निशवल्ग्यी पुरुषा4 वो प्रमकाना भौर उसके लिये प्रेशणा देना ही हम शाम का प्रवान उद्ेश्य होने पर भी उसका सवोग सष्टीकझाण करते हुए प्मश्त शास्त्रों के पर्व प्रयोजनमूत तल्नों का सपष्टी- करण भी इस ग्र चनो में झागया है, मानों श्रतामृत का परम भाहाद- जनक महासागर इनमें दिलोरे ले रहा हो। यह प्रवचनेन हजारे प्रश्नों को छुलकाने के लिये मद्राक्रोष है। शुद्धामा की स्चि उन्न करके, पर के प्रति जो रुचि है उप्ते नष्ट करने की परम भ्रौषध है। श्यं भूति का सुगम प्रयै तथा मिततभित प्रफारके समत अतमि के लिय ध्यत उपरो दै । पम पृव्यश्री कानजी खामी मै ईन भृतपागर्‌ के ममान प्रवचनों की भेट देकर भारतवष के मुपुछ्ुओं को उपकृत নিয়া ই। खरूपसुधा को प्राप्ति के इच्छुक जीवों को न परम पत्रित्र प्रवचनों का बारंबार मनन काना योग्य है। सेप्तार-विषवृक्ञ को नष्ट करने के लिये यह पाध श्च है। इस पस्पायुवी महुण्य गय में जीव का सत्र प्रथम यदि कोई बत्तेत्य है तो वह शुद्धाओम का बहुमान, प्रतीति शोर खनुगत है| उन वहुमानादि के कराने में यह प्रवचन परम निमित्तभूत है। दे मुमुछुमों। भतिशय उल्लाप्रपृत हनका ध्रभ्याप्त करके उम्र पुकपाथ से इनमें भो हुए भावों को मली।ति हंदय में उतारकर, शुद्धाला को কি, प्रतीति भी! भनुसत्र करके शाश्वत মনল को प्राप्त करों ! रामजी माणेकवेंद्र ढोशी, प्रमुख- श्री जन स्वाव्यायमन्दिर टरम मप्र गृपला १२ पौर हवन्‌ २४५६ सोन




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