पातज्जलयोगाप्रदीप | Patjjalyogapradip

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Patjjalyogapradip by श्रीस्वामी ओमानन्द तीर्थ - Shreeram Omanand Tirth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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¢ 3 जानंकारीके उद्देश्यसे किया गया है। योगवात्तिक जो किंचित्‌ बड़ा और गृढ़ विषयक है केवल उच्च | श्रेणियोंके पाठकोंके लिये है। इन टिप्पणियोंको यदि चाहें तो स्वेच्छालुसार छोड़ सकते हैं। | ५ बहुत-सी उपयोगी आवश्यक और ,जाननेयोग्य बातोके बढ़ा देनेसे वर्तेमान ग्रन्थ प्रथम संस्करणकी अपेक्षा छगभग दुगुना হী বাতা ই। इस प्रकार जहां स पातन्जख्योगप्रदीपसें छयमम्ग सभी आवश्यक विषयोका संकलन किया गया है ओर केवर इस एक पुस़्तककों रखते हुए अन्य बहुत-सी पुस्तकोंकी आवश्यकता नहीं रहती है, यहाँ बहुत-से सत्संगियों तथा अन्य कई प्रेमी सज्जनोक विचारोंको दृष्टिमें रखते हुए दैनिक पाठके लिये “सांख्य-तत्त्व-समास” तथा योगद्शनक अर्थसद्ति सूत्र गुटकारूपमे “सांख्ययोगसार” नामसे ,अलूग छपवा दिये गये हैं । सारा ही मनुष्य-जीवन योगके अन्तर्गत है। इसलिये मनुष्य-जीवनसे सम्बन्ध रखनेवाले सारे विषयोंकों यथोचित स्थानमें दशोया गया है। मनुष्योकी प्रकृतियों और रुचियाँ भिन्न-भिन्न हैं। यह असम्भव दै कि सारी बाते सव मनुष्योको संतुष्ट कर सके । अतः पाठक मदालुभावोसे निबेदन है फि नाना प्रकारके विचाररूपी पुष्पोंकी इस ग्रन्थरूपी वाटिकामेसे अपने रुचिकर पुष्पोकी सुगन्धको प्रदण कर लें | जो उनके दृष्टिकोणसे अनावश्यक अथवा दोषसयुक्त प्रतीत हों, उनके प्रति उपेक्षाबृत्ति- द्वारा अपने उदार भावोका परिचय दे। | सारे ही निष्को स्वतन्त्र विचारोके साथ युक्ति, अनुभूति ओर श्रतिके आधारपर निष्पक्ष- भावसे उनके सू्ष्म-से-सक्ष्म रूपमे दशोनेका यत्न किया गया है। आश्ञा है पाठकगण साम्प्रदायिक पक्षपात तथा सत-मतान्तरोकी संकीर्णताकी क्षुद्रतासे परे होकर हृदयकी विशालतामे प्रत्येक विषयपर अपनी स्वच्छ, निर्मल और सात्तविक बुद्धिस विवेकपूर्ण विचार करके वास्तविक छाभ उठायेगे। कुछ बातोकों कई प्रकरणोमे उद्धृत किया गया है । इस्तको पुनरुक्ति दोष नहीं समझना पवाहिये | महत्त्वपूर्ण और गहन विषयोको पाठकोकों हृदयंगम करानेके लिये ऐसा किया गया है जैसी करि धार्मिक प्रन्थाकी शेली चली आ रही है | जो महानुभाव इस ग्रन्थमे किसी प्रकारकी न्ुदियों और भूछोके बतलाने, किसी स्थानपर न्यूनाधिक वा परिवर्तन करने अथवा अपने विशेष विचारोक प्रकट करनेकी कृपा करेंगे, उनका बढ़े आदर, सम्मान और धन्यवादक साथ स्वागत किया जायगा तथा इसके अगले सस्करणमे उनके सम्बन्धे पूरा विचार किया जायगा | - 9 पाठकोंके सुभीतेक लिये ग्रन्थके अन्तमे चार परिशिष्ट दिये गये दै । परिशिष्ट ( १ ) मे सांख्य और योगदशनक मूल सत्र, (२) में वणोनुक्रमसत्रसूची, ( ३ ) में शब्दालक्रमणी और ( ४ ) में विषय- ৪১ है। आशा की गयी थी कि दूसरे सस्करणमे अशुद्धियाँ न होने पार्येगी, कितु प्रेसबाल्ोके प्रयत्न करेनेपर भी बहुत-सी अशुद्धियों रह गयी थीं और एक लंबा शुद्धयशुद्धिपत्र ढगाना पड़ा था। इस संस्करणमें उन भूलोंको यथास्राध्य सुधार दिया गया है। ' ' अन्तमे जिन महाजुभावोंने इस ग्रन्थक तैयार कशने और प्रकाशन करानेमे किसी प्रकारकी भी सहायता दी है उनका धन्यवाद तथा जिन प्राचीन ऋषियों और वतेमान समयके महापुरुषों और विद्वानोके उश्च, पवित्र और रहस्यपूर्ण विचारोसे इस प्रन्थको सुशोभित किया गया है ओर उपयोगी बनाया गया है उनके प्रति कृतक्ञताका प्रकट कर देना अत्यन्त आवश्यक प्रतीत होता है। | ओम्‌ तीर्थ पातञ्जकयोगाश्रम, पुष्कर ४




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