श्रीमात्रवाणी | Shri Matravani

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ग ०३ ही | | ` + , , ४ ५ : है 7 है ; (५ प्रार्थना ओर ध्यान ९ जसे भारतके सुगंधित द्रव्योका पवित्र धुआं उपरकी ओर उठता है। है प्रभु! एसी कृपा कर्कि मँ मनुष्योके बीच तेरी अग्रदूत बन सक्‌ जिससे कि वे सब लोग जो तैयार हैं, उस परम आनंदका आस्वाद पा सकें जिसे तू अपनी असीम करुणावश मुझे प्रदान कर रहा है, तथा ऐसी कृपा कर कि इस पृथ्वीपर तेरी शांतिका राज्य' स्थापित हो। १० फरवरी, १९१३ हे भगवान्‌, क्ृतज्ञतामें मेरी सत्तामात्र तुझे धन्य धन्य” कहती है। इस- लिये नहीं कि तू अपने-आपको अभिव्यक्त करनेके लिये इस दुर्बल तथा अपूर्ण. शरीरकों उपयोगमें छा रहा है बल्कि इसलिये कि तू अपने-आपको ` अभिव्यक्त तो कर रहा हे , ओर यहु, वास्तवमें वेभवोका वैभव हु, आनंदो का आनंद और आइचयोंका आइचये हे। तेरे सब उत्कट जिज्ञासुओंकों यह्‌ पता होना चाहिये कि जहां तेरे प्रकट होनेकी आवश्यकता होती है वहां तु प्रकट हो जाता है। यदि वे इस चरम श्रद्धामें तुझे ढूंढ़नेकी अपेक्षा हर क्षण अपने-आपको समग्र रूपमें तेरी सेवामें अर्पण करके प्रतीक्षा करना अंगीकार करें तो, निश्चय ही, जबं आवश्यकता होगी तु प्रकट हो जायगा। और, वास्तवमें, अभिव्यक्तिके रूप चाहे कितने भी विभिन्न तथा प्रायः: अप्रत्याशित ही. क्‍यों न हों, क्‍या हमेशा ही तेरे अभिव्यक्त होनेकी आवश्यकता नहीं है ! प्रमु, तेरी महिमा उद्घोषितं हो, मानव-जीवन उससे पवित्र बने, . हमारे हृदय रूपांतरित हों, और सारी धरतीपर तेरी शांतिका राज्य हो। १२ फरवरों, १९१३ ज्यों ही किसी अभिव्यक्तिमेंसे प्रयत्नमात्रका लोप हो जाता है त्यों ही... बह एक अत्यंत सरल क्रिया बन जाती हूँ, वेसे ही सरल जेसे कि एक फल बिना किसी कोलाहल और आवेगके, सहज ही खिलछता हे तथा अपने सौंदये-




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