जीनसहस्त्रनाम | Jinsahastranaam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ जिनसहस्तनाम आशाधर सहसनाम पर एक दृष्टि'-- प॑ आ्ाशाधरजीके प्रस्तुत जिनसहइखनामका श्राद्यीपात गम्भीर पयं वेण कणे पर निम्न जाते हृद्य पर स्वयमेव अंकित होती है -- १-श्राशाधरजीने शिवष्लनाम श्रादिके समान भगवानफे खहलना्मोको न तो उनके मुखसे ही कहलाया है और न जिनसेनके सहखनामके समान उस इन्द्रके मुखस ही कइलाया है। किन्तु स्वयं ही संसारके डु खसे संतत होकर बे करुणावागर घीतयग मगवानछे सम्मुख उपस्थित होकर प्रार्थना करते हैं -- हे प्रभो मैं ससार देह और भोगोंसे विर्त' एवं दु खोंस सन्तप्त होकर श्राप जैसे करुणा सागरफों पाकर यह विनती करता हू कि अनादिकालसे लकर आज तक मैं सुखकी लालसास माहका मारा इधर उधर ठोकरें खाता हुआ मारा मारा फिस मगर कहीं सुखका लेश भी नहीं पाया और सुखका देनेवाला आपका नाम तक भी मैने इसके पृर्ष नहीं सना । आज मेरे मोहग्रहका आवेश कुछ शिथिल हुआ है और गुरुजनों से आपका नाम सुना है. श्रत आपके सामने श्राकर स्तुति करनेको उद्यत हुआ हू । मे¶ भक्ति मुभ प्रेरित कर रही है कि रात दिन आपकी स्तुति करता रहू पर शक्ति उसमें बाघक होकर मुझे हतोत्साह कर रही है क्योंकि में अल्प शक्ति और अल्प शानका धारक हूँ अतणएव केवल अशेत्तर सहस्तनामसे स्तुतिकर अपनेकों पविध्र करता हू । ( देखो श्राशाधर सहलनाम श्टेक १ स ४ ) इसके पश्चात्‌ वे दश शतको सष्टलनामोके कष्टनेकी प्रतिक, मी विधिवत्‌ कते हैं और प्रतिशनुसार ही स्तवनं प्रारम्भ करते टं । यत ঈ জিন भगवानका स्तवन करनेके लिए उद्यत हए ह॑ श्रत ड होने सवं प्रथम जिनशतक रचा है श्रौर तदनुसार इस शतकमे जिन জিননহ জিনহাত श्रादि नामोका उनमे समावेश किया है। जिन यह पद जिन नामों है या जिनके आगे प्रयुक्त हैँ ऐसे लगभग ७ नाम इस शतकर्म सन्निषिष्ट है । जिन पदका श्रर्थ जीतनेवाला होता है। उक्त विविध जिनपद विभूषित नामोंके द्वारा प्रथ कार मानो जिन भगवानस कह रहे हैं कि है भगवन्‌ आपने अपने राग दृथ मोह काम क्रोष लोभादि शत्रुओंकी जीत लिया है अतएव आप निर्तिष्न हैं नीरज हैं शुद्ध है निर्मोह हैं बीतराग है जितृष्ण हृ निर्भय हैं और निर्विधाद ह अतएब अजर अ्रमर हैं और निश्चिन्त है । द्वितीय शतकका नाम संशशतक है क्योंक्त यद्द स्वश नामस प्रारम्भ होता है। इस शत्तकमें प्रयुक्त नामोंके पर्यवेज्षणस विदित होता है कि मानों स्तोता श्रपने इष्ट देवतास क रहा है कि यत आप सर्वश सर्ेदर्शोी अनन्तविक्रमी और श्रनन्तसुखी हँ श्रत श्राप परतेज है परधाम हैं परज्याति ह पर मेष्ठी ह श्रह्मस्मा है. अ्रनत शक्ति ह। और इसी कारण आप जगतके दु।ख सतप्त प्राणियांको शरणके देनेषले ह । इसके पश्चात्‌ ग्र थकार जिनभगवानी स्तुति करके लिए एकं क्रमवद्ध शैलीका श्राय लेते है । उनकी दृष्टि सबसे पहले तीथकर भगवानके पचर कल्याणकों पर जाती है और वे उनकी आधार बना करके ही भगवान्क्षा स्तवन प्रारम्भ कसे है । ग्रथकारने पचकल्याणकोमें इन्द्रादिके द्वाा की जानेवाली महती पूजाकों ही यश्च माना है श्रौर इसी लिए वे तीसरे शतकको प्रारम्भ करते हुए भगवानस कहते हैं कि आप ही यशाह हैं अर्थात्‌ पूजनके योग्य हैं पूज्य हैं, इन पूजित हं आराध्य हैं। और इसके अनन्तर ही वे कते है कि श्राप गर्भ जन्म तप शान और निर्धाण इन पंचकल्याणकॉसे पूजित हैं। इसके पश्चात्‌ वे क्रमश पार्चों कल्याणफॉकी खास लास गा्तोको लकय करके नके श्राभयले मगवानके भन नार्मोकी स्वना करते है । पाठकगण जरा हैम नामों पर ध्यान देंगे तो शात होगा कि उन नामौसे भगवामका स्तवन करते हुए ग्रंथकारने फिसी भी कल्याशककी कोई मी बातको छोड़ा नहीं है। पाठकॉंकी जानकारीके लिए, इस शतकके नामोंका क्रमश षादौ कल्याणकोमे वर्गोकरण किया लाता है --




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