पूर्णा - संग्रह | Poorna - Sangrah

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Poorna -  Sangrah by राय देवीप्रसाद - Ray Deviprasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका 4४ , राथ हु्गाप्रसादजी बालाघाट ( मंध्य-प्रदेश ) में चकोलल (ब; राय चंशीधरजी, जैसा हम कद्द चुके हैं, जबलपुर से वकील थे । अतएव यदि परिस्थिति का भ्रमाव किसी मनुष्य के जीचन पर पड़ता है, तो पूर्णनी के संबंध में वह सरवेथा उनके पक्ष म थी 1 एक शिक्षित परिवार में जन्म अदण करना सवके भाग्य में नहीं होता । मनुष्य के जीवन को समझना पेली विकट समस्या है कि कोई भी यह नहीं कद सकता कि किसी शिक्षित सच्चरित्र परिचार की #संतान भी शिक्षित হুল सच्चरित्र होगी ! अस्तु-- झभी यदद नवजात होनद्वार बालक ४वर्षों का भी न हो पाया था क्वि राय वंशीधरजी को कराल काल ने आ घेरा। पितृहीन चालक देवीप्रसाद के लालन-पालन का भार उनके चचा राय 'कीलाधरजी पर पड़ा । उन्होंने ही उन्हें उच्च शिक्षा গাম জবাই । अध्ययन बहुत लोगों की प्रतिभा का: विकास कुछ समय पाकर होता है; उनकी ईश्वर-प्रदत्त शक्तियों की स्फूर्ति कुछ काल के अनंतर होती है। उनकी प्रतिभा-सूर्य की ज्योत्रि निर्धनतादि श्रावर्ो से श्राच्डादित होने के कारण, अथवा उनकी शक्तियो की -करी अनखिलौ ोने के कारण, कुछ काल तक उनमें ओर साधा- रण मागगामी मोहन, सोहन में छुछ तर नीं दृष्टिगोचर होता हे । 'परंतु छुछ मद्दापुरुषों की अखर प्रतिमा वाल्य-काल ही मे अपनी -तिचित्रता के लक्षण प्रकट करती है । साधारण वार्तालाप मं अथवा कौतूहल में बालक की बुद्धि का परिचय किसी भी चतुर पुरुप को मिल सकता ই 1 ` देवीअसाद की बुद्धि एवं विद्यासिरचि उस छोटी अवस्था में सी असाधारण थी। उन्हें प्रथम ही से कविता और धार्मिक अंथों के पढने की विशेष रुचि थी। विद्यार्थिजीवन হী में उन्हें काव्य-




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