संघर्ष का सत्य | Sangharsh Ka Satya

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Sangharsh Ka Satya by UpendraNath Ashak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है... संघर्ष का सत्य | २४ था । 'माई' से मालूम हुआ कि “बहन जी' ऊपर हैँ । विवश हो कवि वापस फिरे भर बराबर की गली में से हो कर मकान के पिछवाड़े सीढ़ियों में पहुँचे । सीढ़ी चढ़ते हुए मन-ही-मन उन्होंने सोचा कि शान्ता मिल जाय, कहीं इतनी दूर झाना विफल न हो ! उनका झ्राना विफल नहीं हुमा । सीढ़ियों ही से उन्हें एक बच्चे के रोने और शान्ता बहन के चीखने की शझ्रावाज़ सुनायी दी और जब वे सीढ़ियाँ चढ़ गये तो आँगन का दृश्य देख कर कुछ क्षण स्तम्भित-से वहीं चौखट में खड़े रहे । सामने शान्ता विद्यालय की विदुषी प्रिंसिपल श्रीमती शान्ता देवी “प्रभाकर,' “साहित्यरत्न अपने काले-कलूटे बच्चे को गर्दन से पकड़े धड़ाधड़ पीट रही थीं, ज़ोर-जोर से. चिल्ला रही थीं; श्रौर बच्चा उनसे भी ऊँची में चिघाड़ रहा था । शान्ता बहन शायद बर्तन मलते-मलते बच्चे को पीटने आरा गयी थीं, क्योंकि राख से लिथड़े हुए उन के हाथ बच्चे के मुँह भर शरीर पर जहाँ-जहाँ पड़े थे, पाँचों उंगलियों के कीचड़-सनें निशान बन गये थे । कवि चातक के सौन्दर्य-प्रिय कवि-हृदय को यह सब देख कर प्रबल श्राघात लगा । वे उलटे पाँव' लौट जाते, पर ' तभी शान्ता बहन की दृष्टि उन पर जा. पड़ी श्रौर भ्रपनी आ्राकृति को यथा-सम्भव मुदुल बना, बरबस खींच-खाँच कर एक मुस्कान होंटों पर ला कर, लिथड़े हुए हाथ मस्तक तक ले जाने का उपक्रम-सा करते हुए, उन्होंने कवि का झभिवादन किया आर कहा कि वे अन्दर जा कर उन' के पास बँठें, वे दो-तीन बर्तन मल कर श्राती हैं । शान्ता जी मभलें कद को अ्रट्टाइस-एक वर्ष की महिला थीं, परन्तु भ्रट्टाइस के बदले वे भ्रड़तीस वर्ष की लगती थीं । यौवन के उन गुलाबी जाड़ों के-से मधुर- मदिर दिनों में, जिनका सम्बन्ध पन्द्रह से अठारह वर्ष तक की वयस से है (क्योंकि: कहने को तो श्रट्टाइस वर्ष की स्त्री भी युवती कहलाती है) जब हर लड़की सुन्दर लगती है श्रौर उसके भोलेपन को संसार की लम्पटता का ज्ञान नहीं होता, . एक युवक ने शान्ता जी को धोखा दिया था । फलस्वरूप उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वा, सप्ताह भर में उनका विवाह कर दिया था श्ौर कुमारी शान्वा तुल्ली से श्रीमती शान्ता भगतराम सहगल बन कर वे गोपालनगर के एक लकड़ी: के टाल की स्वासिनी बन गयी थीं ।




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