उपनिषत श्री | Upnishat-shree
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
116.64 MB
कुल पष्ठ :
419
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)है--तत्सत्ये प्रतिष्ठितमू (बृहद० 5/14/4) अर्थात् वह सत्य में प्रतिष्ठित है। 'सत्यम्' शब्द तीन अक्षरों---
स+ति+यम्--से बना है (बृहद० 5/5/1)1 ये तीनों अक्षर क्रमश: जीव, प्रकृति और ईश्वर के वाचक हैं। इस
प्रकार 'सत्यम' ब्रह्म का ही अपर नाम है--सत्यं ब्रह्नोति सत्य होव ब्रह्म (बृहद० 5/4/1) इस प्रकार ब्रह्म को
जान लेना तत्त्वज्ञान के तीनों विषयों को जान लेना है। उस परम ब्रह्म को जानने के लिए साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों
ने जिस विद्या का विस्तार किया उसे ब्रह्म विद्या के नाम से अभिहित किया। ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन करने वाले
ग्रस्थ उपनिषद् कहलाये।
समस्त उपनिषद् किसी एक ऋषि की रचना नहीं है। ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक
अनेक ऋषियों को भिन्न-भिन्न काल में जिन आध्यात्मिक विचारों का स्फुरण हुआ वे ही भिन्न-भिन्न उपनिषदों में
वर्णित हैं। प्रस्थानत्रयी (गीता, उपनिषद् व ब्रह्मसूत्र) में उपनिषद् सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उपनिषद् रूपी गोओं
से गीतामृतरूपी दुग्ध का दोहन तो प्रसिद्ध ही है। ब्रह्मसूत्र में जो कुछ कहा गया है, उसका मूल भी उपनिषदों में
उपलब्ध है। वस्तुतः भारतीय -दर्शन की विभिन्न पद्धतियाँ उपनिषदीं की ज्ञानधारा के पावन पीयूष को पाकर ही
पल्लवित हुई हैं इसलिये उपनिषद् आध्यात्मचिन्तकों की अक्षयनिधि हैं।
“उप' तथा 'नि' उपसर्गपूर्वक 'क्विपू' प्रत्ययान्त 'सद' धातु से उपनिषद् शब्द निष्पन्न होता है। 'सद' धातु
के तीन अर्थ होते हैं--विशरण (नाश), गति (प्राप्ति) तथा अवसादन (अन्त)। इसलिये उपनिषद् का अर्थ
हुआ--वह ज्ञान जिससे अंविद्या का नाश होकर आत्मज्ञान की प्राप्ति और दुःख का अन्त होता रू
कुछ विद्वानों के अनुसार 'सद' धातु से 'नि' उपसर्ग लगाकर 'निषीदति आदि प्रयोगों के आधार पर
जिज्ञासुओं का ब्रह्मवितू गुरुओं के पास (उप) बेठकर ब्रह्मज्ान की प्राप्ति करना भी उपनिषद् शब्द से अभिप्रेत हैं।'
इस अर्थ में भी उपनिषद् एक रहस्य तत्त्व की ओर संकेत करने वाला साहित्य है जिससे जिज्ञासु की
अविद्या का नाश होकर उसे विद्या या ज्ञान की प्राप्ति होती है और इस प्रकार उसके त्रिविध दुःखों का उन्मूलन
हो जाता है।
उपनिषद् निश्चय ही मनुष्यकृत है, जबकि वेद ईश्वरोक्त होने से अपौरुषेय है। अतएव उपनिपदों का
वेदों में अन्तर्भाव नहीं हो सकता। वेद पद वाच्य ग्रन्थों में चार मन्त्र संहिताओं---ऋणग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व
अधथर्ववेद--का ही समावेश होता है। वेद की महत्ता के कारण ही लोगों ने मनमाने साहित्य को वेद के नाम से
अभिहित किया है।
जब हम यह जानना चाहते हैं कि वह कौन सा वाक्य समूह है जो आदिकाल से आज तक ईश्वर प्रदत्त
अर्थात् अपौरुषेय नाम से प्रसिद्ध रहा है तो समस्त वैदिक वाड्मय एक स्वर से कहता है--ऋग्वेद, यजुर्वेद,
सामवेद और अथर्ववेद। वेद की अन्तःसाक्षी (ऋकू 20/90/9 यजु: 31/8 व 34/5, अथर्व० 1/10/23, 10/7/
20 व 19/6/15) तो प्रमाण है ही, मनुस्मृति, ब्राह्मणग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण आदि समस्त परवर्ती
साहित्य भी केवल मन्त्र संहिताओं को ही वेद कहता है। इतना ही नहीं, स्वयं उपनिषद् भी अपने आप को वेद
हे कह कर केवल मन्त्र-संहिताओं के वेद होने की घोषणा करते हैं, जैसा कि इन कतिपय उद्धरणों से स्प
नस ४:
उपनिषत्-श्री: 16
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