मार्कण्डेय पुराण [प्रथम खण्ड] | Markandey Puran [Pratham Khand]

Markandey Puran [Pratham Khand] by वेदमूर्ति तपोनिष्ठ - Vedmurti Taponishth

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १५ ) प्रधान (मूल प्रकृति) से लेकर पंच तन्मात्राओं तक है ओर जिसमें चेतन- अचेतन दोनों सम्मलित है, एक पाद, द्विपाद बहुपाद पर बिना पैरों वाले (सरीसृपादि) जितने प्राणी हवे सबविष्णुके मूतिरूपदहै। इसे ही “इवं सवम्‌ या चराचर जगतु कहते है! इसकी रचना तीन प्रकार की भाव- नाओं से हुई है-ज्रह्य भावना क्म॑भावना ओर आध्यात्मिके भावना | इन्हें क्रमशः सत्त्व रज ओर तम भी समझा जा सकता है ! परज्नह्य रूप विष्णु जब अपनी शक्ति से संयुक्त होता है तब इन्हीं तीन भावों में अपने को पकट करता है 1 भगवानु के निगुण ओरसगण रूपका विवेचन करते हुए ब्रह्य पुराण' में कहा गया है कि तत्वदर्शी मुनियों ने जल को “नार' कहा ड । वह नार पूवं काल में भगवान्‌ का 'अयन' (ग्रह) हुआ, इसलिए वे 'नारा- यण कहलाये, वे भगवान्‌ नारायण सबको व्याप्त करके स्थित है । वे ही निगुण सगुण भी कहे जाते हैं । वे दूर भी है और समीप भी है । जिनसे लघु और जिनसे महान दूसरा नहीं है जिन अजन्मा प्रभु ने सम्पूणं जगत्‌ को व्याप्त कर रखा है जो आविर्भाव तिरोभाव, इष्ट, अहुष्ट से विलक्षण है, सृष्टि ओर संहार भी जिनका रूप बतलाया जाता है, उन आदि देव परब्रह्म परमात्मा को हम प्रणाम करते हैं। जो एक होते हुए भी अनेक रूप प्रकट होते हैं, स्थुल-सूक्ष्म, व्यक्ति-अव्यक्त जिनके स्वरूप है, जो जगत्‌ की सृष्टि, पालन ओौर संहार के मूल कारण है, उन परमात्मा को नम- स्कार है ।' “मार्कण्डेयः विष्णु ब्रह्य आदि सभी पुराण इस विषय मे एकमत हैं कि जो निगु ण-निराकार ब्रह्म अनादि और अरूप कहा जाता है वहीं सगुण और साकार होकर इस चराचर विश्व को प्रकट करता है । उसको सबसे पृथक किसी अगस्य स्थान में विराजमान मानना निरर्थक है वरन्‌ चह विश्व के प्रत्येक छोटे से छोटे और बड़े से बड़े पदार्थे में व्याप्त है और जिसे इस सर्वव्यापी ब्रह्म की अनुभूति प्राप्त हो गई है वह्‌ प्रत्येकं स्थान और प्रत्येक पदार्थे में उसके से दर्शेन कर सकता है। इसी रहस्य को रामायण में शिवजी ने अत्यन्त संक्षेप में कह दिया है---




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