बंशी | Banshi

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Banshi by भोलानाथात्मज - Bholanathatmaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ | ५227७ राधा--- ( २६ ) लख माधुरी मूरति मोहनः की, बनी प्रेम के रोग की रोगिनी कोड । निशा शारदी मे गल्बोँही दिये, रस रासविलासकी भोगिनी कोई॥ कुललाज कुटुम्ब सभी तजक, हुई कृष्ण वियोगमे जोगिनी कोड । जमुना तट रोरही देखो खड़ी, वह सुन्दरी श्याम वियोगिनी कोई ॥ ( ३० ) सहती न वियोग कभी शशि का, उर सें नित ही लपटाती निशा। हँसती उस चाँद की चाँदनी में, दृढ़ प्रेमका पाठ पंढ़ाती निशा ॥ ब्रजचन्द्‌ -विहीन हमें लख के, मुसकाकर जी है जलाती निशा। निज अंक में देखो मयंक लिये, इठलाती हुईं चली जाती निशा ॥ ३१ ) मूरति तेजमय्री तुम्हरी, मनसों मन-मन्दिर माँदि परूगी। नीरद नेनन के जलसों, पग धोय सब श्रम वेगि हरूगी॥ शोशित अध्य ओ धूप हियो, विरद्दानल मुण्डन-माल भरू गी। आवहु थेगि दया करिके, इमि स्वागत तेरो वमन्त करू गी ॥ ( ३२ ) राम धरा अवतार जब, तब खूब सिया का शरीर जला है। रावण की भगिनी संगहू, कदु वातं बनाय के वक्त टला है ॥ बेर] बजाय के मान हरे, अब राधा सरूप॑ अनूय छला है। नन्दलला की विचित्र कला, कव काको भला तुम कीन्ह भला है ॥ ( ३३ ) नित माखन मिश्रो खिला करके, यशुदा से गये वलवान बनाये । इसी कारण निश्चल होकर के, नख ही चै रहै गिरिराज उठाये ॥ यह्‌ सुन्दरता यह्‌ चं चलना, किस गोपी से श्राप चुराकर लाये । प्रिया राधाके चीर चुरायेजो थे, वह्‌ जाकर द्रोपदी को पहिनाये ॥




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