श्रीश्रीचैतन्य-चरितावली (तृतीय खण्ड) | Shreeshreechaitanya - Charitavali (Tritiya Khand)

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Shreeshreechaitanya - Charitavali (Tritiya Khand) by श्री प्रभुद्त्तजी ब्रह्मचारी - Shri Prabhudattji Brahmachari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१२ श्री भरीचेतन्य-चरितावली खण्ड ३ हपघीसे पाठकोंको पता चलेगा कि भगवत्-प्रेममें किलना अधिक सुख होगा, जिसकी उपलब्धिके लिये इतने बढ़े-बढ़े सुखोंका' बात-की-बातमें त्याग करके महापुरुष ग्रहत्यागी बनवा्सों बन जाते हैं। इसीलिये संन्यासघमंके दपाखक सन्याखिचृडामणि महात्मा भतृहरिने रोते-रोते कहा हे-- घन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योति पर॑ ध्यायता- मानन्दाशत्र जल॑ पिबन्ति शकुना निःशक्लुमब्केशयाः । अस्माकं त॒ मनोरथोपरचितप्रासादवापीतटे कीडाकाननकेलिकोतुकजुषामायुः परित्तीयते || ( भतु हरि ° वैराग्य १०३) प्रहा ! पवंतकी कन्दराश्रोमें निवास करनेवाले वे महानुमाव्र मनस्वी, तपस्वी, यशस्वी त्यागी पुरुष धन्य हैं. जो निरन्तर पर- त्रह्मका प्रकाशमय, प्रेममय, च्रानन्द मम श्रौर चैतन्यमय ज्योतिकं ध्यान करते रहते हँ । जिनसे किसी भी प्राणीको भय तथा संकोच नहीं होता ओर जा प्रभकी स्मृतिमें सदा प्रेमाश्र ही बहाते रहते हैँ उनके उन प्रममय अश्रश्नोंकी भीरु हृदयवाले पक्षी निःशद्धू होकर उनकी गोदीमें बेठे हुए ऊपर चोंच करके पान करते रहते हैं श्र अपनी सभी प्रकारकी. पिपासाकों शान्त करते हैं | यथार्थ जीवन तो उन्हीं महात्माश्रोंका बीतता है। (हमारा जीवन कैसे बीतता है ?? इस बातो न पूछिये । हम तो पहले अपने मनो- रथोंके द्वारा एक सुन्दर-सा मन्दिर बनाते हैं, फिर उस मन्दिरके समीपमें ही, मनोहर-सी एक बावढ़ी खोदते हैं. और बावड़ीके पाखमे ही एक क्रीड़ा-काननकी रचना करते हैं | बस, उस कल्पना- के क्रीड़ा-काननमें ही कुतृहल करते-करते हमारी सम्पूर्ण आयु कोण हो जाती है। सारांश यही है कि भाँति-भाँतिकी मिथ्या




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