अपभ्रंश-साहित्य | Apbhransh-Sahitya

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Apbhransh-Sahitya by हरिवंश कोछड़ - Harivansh Kochhad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रावकथन ११ विद्वान्‌ इसके साहित्य की ओर भी आष्ट हए । श्री चन्द्रधर शर्मा गुलेरी ने नागरी प्रचारिणी पत्रिका नवीन संस्करण भाग २ में करई वषं पूर्वं पुरानी हिन्दी नाम का एक प्रबन्ध लिखा था । इसम उन्होने प्राचीन भारतीय आ्यै-माषाओं के प्रवाह-कऋ्रम में अपभ्रंश का महत्त्व दिखाया । आचार्यं रामचन्द्रे शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में अपश्रंश या प्राकृताभास हिन्दी के नाम से कुछ कवियों और ग्रंथों का निर्देश किया । श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी ने सन्‌ १९४० में अपनी 'हिन्दी साहित्य की भूमिका” नामक पुस्तक में भारतीय भाषा, साहित्य और विचारधारा के पूर्वापर विकास में अप भ्रंश के महत्त्व की ओर निर्देश किया । अपभ्रंश का इतना महत्त्व होते हुए भी अभी तक कोई इस साहित्य का विकासात्मक ग्रंथ या इतिहास प्रकाशित न हो सका । पं० नाथू्राम प्रेमी ने जैन साहित्य और इतिहास” सन्‌ १९४२ में प्रकाशित कराया था । उसमें अनेक संस्कृत, प्राकृत-अप भ्रंश के जन लेखकों का परिचय मिलता है। श्री राहुल जी ने सन्‌ १९४५ में प्रयाग से हिन्दी काव्य-धारा' का प्रकाशन करवाकर अनेक अपम्रंश कवियों की रचनाओं का संग्रह प्रस्तुत किया । सन्‌ १९४७ में श्री कामताप्रसाद जेन ने हिन्दी जन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास” लिखा । इसम लेखक ने अपभ्रंश काल से ठेकर १९ वी सदी तक जेन धर्मानु- यायी विद्वानों की हिन्दी साहित्य सम्बन्धी रचनाओं का संक्षिप्त परिचय दिया है। सन्‌ १९५१ में डा० रामसिह तोमर ने प्राकृत-अप भ्रंश-साहित्य ओर उसका हिन्दी पर प्रभाव नामकं निबन्ध लिखा । यह्‌ निबन्ध अतीव परिश्रम ओर योग्यता से लिखा गया ह किन्तु अभी तक अप्रकारित हुं । सन्‌ १९५२ म बिहार-राष्टृभाषा परिषद्‌ के तत्त्वावधान में डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने महत्त्वपूर्ण भाषणों में अपभ्रंशकाल के कवियों पर यथेष्ट प्रकाश डाला । यद्यपि अनेक विद्वानों ने अप भ्रंश-साहित्य के अध्ययन को अत्यन्त आवश्यक बताया हैं तथापि अभी तक एतद्विषयक कोई ग्रंथ प्राप्य नहीं । हिन्दी ही नहीं अपितु अन्य प्रांतीय भाषाओं के विकास के लिए भी अपभ्रंश साहित्य का ज्ञान अतीव आवश्यकं है । अपभ्रंश के इस महत्त्व को समझते हुए और एतद्विषयक ग्रंथ के अभाव का अनुभव करते हुए मेंने इस विषय पर कुछ लिखने का प्रयास किया ह। इस निबन्ध में अप भ्रंश-साहित्य का अध्ययन विशेषतः साहित्यिक दृष्टि से किया गया है । अद्यावधि प्रकाश में आए हुए अपभरंर-साहित्य के अनेक ग्रंथों का चाहे साहित्यिक दृष्टि से कोई महत्त्व न हो किन्तु भाषा-विकास की दृष्टि से इनकी उपादेयता कोई अस्वीकार नहीं कर सकता । अपभ्रंश-साहित्य का महाकाव्य, खंडकाव्य ओौर मुक्तक काव्यो की दुष्टि से वर्गीकरण करते हुए संक्षेप मे उसकी संस्कृत ओर प्राकृत से तुलनौ करने का प्रयत्न किया गया है । इस प्रकार अपभ्रंश ने कोन सी प्रवृत्त्या प्राचीन परम्परा से प्राप्त कीं और कौन सी स्वतंत्र रूप से स्वयं विकसित कीं, इसको समझने का प्रयास किया गया है। इतना ही नहीं अपभ्रंश की किन प्रवृत्तियों ने हिन्दी-साहित्य को प्रभावित किया इसकी ओर भी संक्षेप में निर्देश किया गया है ।




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