दिवाकर दिव्य ज्योति [भाग 17] | Diwakar Divya Jyoti [Vol 17]
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
286
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पुण्य -प्रभाव ] । [६
पामा
सकता इसी प्रकार मुफ़ात्मा जीव, जिन्हें निरन््भ्न पद् प्राप्त हुआ
£, मोक्त सुख का श्रनुभव तो करते ह, सगर उसे प्रकट करने के
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लिए उनके पास भी शदर नहीं हूं ।
वत्तोस एज्ञार मुदुटवद्ध राजा जिसकी ह।जिरी में खड़े रहते
ह धार हाथ जोध श्राप्ता का प्रतोक्ता करते रहते है, उष दह् खड
फे श्रधिपति चक्रवर्ती शा सुख उत्तम है या मोक्ष का सुस्त उत्तम
ऐ अगर चस्वर्तों का सुख उत्तम होता है तो ध्यं चक्रवर्ती भां
अर्पट परुखट के महान् साम्राज्य को ठोकर सार फर क्यों भिन्नु-
जीवन राकार फरते १ चक्रवर्ती स्वयं धपने मुख कफो मोक सुख
এ) তুলনা मे तुच्छ আনি समझना है ।
लोग फदत ह--महायज, हमार इच्छा साघु वनने की क्यों
स एतो ¶ मगर भाई, साधु बनने का सन हाने क लिए भो पुण्य
को थावश्यफता हैँ | उपदेश फा असर किप्त पर होता ह? ।जस
मीव ने पचे फाल में प्रकृष्ट पुण्य का उपाज्षन किया है, उसी को
उपदेश सुनपर वदनुमार आचरण फरने की इच्छा द्वोत॑ है । जिसके
पास पुण्य को पृ'जो हो संचित नहीं है, उसे उपदेश केसे लग
सफता है ? |
देषयो, पने लादले लघु সাবা गज सुकुमार की शादी, फे
জি মীন ने ६६ लड़कियों कुमारो--अन्तःपुर में हफट्री कर ली
पी। लइ्डियों सद ऐसी सुन्दरों कि इन्द्र को परी हों। देवांगनाएँ
भो उनका मुझाविला नहीं फर सकती थीं। सिर्फ एक फन्या फी
फम्ी थी ।
বাস ছিলী হা लूल्ो-नलेंगड़ो स्त्री मित्न जाय तो एजरत
पमस् पूःच मदु समति सौर समझते ই मान ঘ/হানী মি নাই
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