अंतिम बेला | Antim Bela
श्रेणी : कहानियाँ / Stories
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गन्ना चूसते हुए दोनों गाँव की ओर बढ़ रहे थे | जुगाई को लगा
जैसे उसके माथे का मार कुछ हलका हो गया है | उसे कुछ राहत-सी
मिल रही थी |
यौवन की दो उठती लहरें, जैसे अंधकार को चीर कर आगे बढ़
रही हों। उनके चूसे हुए गस्ने के टुकड़े पगडणडी पर बिखर रहे थे
जैसे वे उनका चिह्न बनाते जा रहे थे |
और सच ही तो है यौवन में मनुष्य अपने पथ पर बराबर बढ़ता
रहता है| पथ के किनारे मिल्ली मधुर्मिा को वह एक भार-सा उठा
कर अपने हृदय से लगा लेता है । फिर जैसे उसे पात-ब्रिहदीन कर उसके
रसपान के लिए वद उतावला हो उठता है । और अन्त में जब्र वह
, उसके एक-एक अंश से रस चूस छेता है तो उसे पथ पर फेक देता
है | जीवन, में जिसका उपयोग नहों उसे अपने पास वह হক সী
क्यो | यौवन के प्रेम का जैसे यद्दी इतिहास है। परितृप्ति उसकी
होती ही नहीं, वह अपने अधरों की पिपासा को चिरन्तन बनाने में ही
जैसे पूर्ण यौवन का आनन्द पाता हो |
गाँव की बस्ती की सीमा' जहाँ से प्रारम्भ होती है, वहाँ एक
'बढ़ा-सा बरगद का पेड़ है| किसी समय रामकिशुन के वाया का
जमाना भडा अच्छा था। गाँव भर में उन्हीं की धूम थी। उन्होंने
यह बरगद लगाया था और यह कुँआ भी बनवाया था। कहते हैं
इंट पकाने के लिए, जहाँ .उन्दने श्रवा लगवाया, श्राज वद्य एक
तालाव बन गया है जिसका पानी पूरे साल मर नहीं सूखता | धरम का
यश ऐसे ही श्रमर होकर रहता है | पर उसी का वंश जो नष्ट हुआ
तो आज देखो--अब इंस किसन के पास खाने को भी कुछ नहीं
है, मरम्मत के लिए बाप दादों का घर, खंडदर हुआ জা रहा है और
रामक्सिन अपने बच्चों के साथ उसी खंडहर मे भूत की माति उसका
रक्षक बनकर रह रहा है ।
उसी पेड़ के नोंचे आकर दोनों झक गए ।'नवनीत के घर का
अन्तिम-बेला १६.
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