प्रसत्रराघवम् | Prasatrraghavam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २७ ) पण्डितः सेना अनिवार्य था। अपने पाण्डित्य की मान्यता के लिए अपने को (प्रमाण-प्रदीण” बतलाना, युग-भावता का अनुसरणमात्र हैं। उसकी इस प्रमाण. प्रवीण” उक्ति को ऊेकर ताकिक जयदेव के साथ उनको अ्रभिन्नता सिद्ध करना व्यर्थ आायाप्षमात्र है } प्रसन्‍्तराघव पर एक दृष्टि संस्कृत साहित्य में सर्यादापुरुषोत्तम अ्रप्रत्तिम जननायक भगवान्‌ थ्रोटामचन्द्र के लोकोत्र पावन चरित पर रचे गये ताठकों में बढ़ सात अडडकों का प्रसन्न राघव' नाटक अपना एक विजिष्ट स्थान रखता ह । बस्तुविन्यास पर दृष्टिपात करते ही श्रापाततः आभास होता हैं कि भवभूति' के 'उत्तररामचरित” नाटक को मन में रखते हुए, जयदेव जी इस नाटक की रचना में प्रवृत्त हुए हैं । जैसे चि्रदर्शन द्रास उत्तररामचरित में रामवतवापत चरित्त प्रदर्शित किया गया है, ठोक बैसे ही चित्र का झालम्वत्न छेकर समुद्र तठ पर स्थित कपितस्थ, राम के द्वारा प्रमुद्र का अनुनय, ब्रिभीषण को राम के द्वारा लंकाघीश बताया जाना तथां सेतवन्दु धादि का प्रदर्शन कसया गपा है । इसके श्रतिरिक्त उसी को श्रुति पर गङ्खा-यमुना-सरमू के संवादि के स्प मं रामननपरमन, दवारथमर्ण तया वा्लिसुप्रोव की कथा का निवन्वत हुत्रा है, रामचच्द्र हारा कत्तक मृग फा धतुसरण हंसे इरा वणित ह्ग्राहै, गोदावरी श्रोरस्रामरके संकापके ख्पमें जानको हरण, जटायु का मारा जाता शोर ऋणष्यमूक पर्वत पर सीता के द्वारा सूतुर का गिराया जाना आदि कथा की सूचना दी गयी है । अधिकांश पद्मो में भी छत्तररामचरित के पद्चों के ही समान चमस्कार दिखायी देता हैँ । उत्तर- खामचरित के समान ही इस नाटक में भी विदृषक की अदतारणा नहो है । वहां यदि यज्ञाश्व के बर्णात प्रसद्भ में हास्यरस की ऋथक है तो यहाँ भी तृतीय অং सें वामनक और कुब्जक ते झपने संसाप द्वारा हास्य रस की सृष्ठि की है । प्रसस्वराधव में रसयोजना हमारे यहाँ प्राचीन भ्राचाया ने नाव्य तत्त्वों की चर्चा करते समव रस का भी उल्लेख किया है और मारतीय परम्परानुसार दाटकों में रस को ही सुर्य प्रदान की है । रस का विवेचन पहले-पहुड नाटकों के हो! सम्बन्ध में - कियाई २ भ० भू०




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