हिंदी-साहित्य : युग और धारा | Hindi Sahitya Yug Aur Dhara

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वंदे वाणी विनायकौ हट प्रकार, किसी मी मांगलिक अनुष्ठान के पूव शणाधिपति गणेश को कृपा भी आवश्यक है । राजा हो या रंक, बिदग्ध पंडित हो या निश्क्षरमट्टाचायें, शोषक हो या शोषित; ब्राह्मण हो या शुद्र--सभी हर अनुष्ठान के पूव “्रीगणेशाय नमः” का उद्घोष करते ही हैं । इसी से विष्नों का नाश होता है और सिद्धि सिलती है | अस्त, कहना चाहिए कि “श्रीसरस्वत्ये नमः' और “श्रीगणेशाय नसः' (वंदे वाणी विनायको) का उद्घोष न अकारण है और न अज्ञानवश । इसका एक निश्चित इतिहास है और है इसकी एक सुदीर्घ॑ परम्परा ।. सेक्युलरिज्म और प्रगतिशी लता का दम भरने वाले भी विपन्नावस्था में धम की दुद्दाई ही देते हुए दीखते हैं | राजनीति; ज्ञान, विज्ञानादि से धर्म को अलग रखने की माँग अब निस्सार ही सममिए चूँकि विज्ञान के बढ़ते चरण ने पिण्ड से ब्रह्माप्ड और ब्र्माप्ड से पिण्ड को एक करने की ठान-सा लिया डै. । अस्त, समस्त संसार में सहदय-हृदय-संवेद्य, सबंकामप्रद सुबुद्धि की पघाषि एवं प्रत्येक मांगलिक अनुष्ठान की निर्विष्न समाधि के लिए हम एक वार समबवेत रूप में श्रद्धा-संवलित हृदय से उद्घोष करें--'वंदे वाणीविनायकों'




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