आजकल | Aajakal
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
350 MB
कुल पष्ठ :
836
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आचाय तिस्स ने एक हज़ार ऐसे
भिक्षुओं को चुना जो परम
विद्वान ओर अनुभवी थे। इन
भिक्ुआओं की सभा तिस्स की
अध्यक्षता में नो मास तक होती
रही । धर्म ओर विनय सम्बन्धी
सव विधादभस्व विषयों पर इस
सभा ने विचार किया । आचार्य
तिस्स थेरवाद के विभ्जवादी
सम्प्रदाय के अनुयायी थे । उसी
के मन्तब्यों को इस सभा ने
प्रामाशिक रूप से स्वीकार
किया । महासांधिक सम्प्रदाय
के भिक्ुओं के साथ कोई सम-
कोता इस सभा में नहीं हो
सका और अशोक ने उन्हें संघ
से वहिष्कृत कर दिया । थेरवाद
के आन्तरिक सतसेदों का निराकरण करने में इस सभा को सफलता प्राप्त
हुई और उसने तिस्स द्वारा लिखित 'कथावत्थुः नासक अन्थ को प्रमाण
रूप से स्वीकृत किया । बौद्धों की तीसरी सहासभा यद्यपि महासांधिकों
ओर थेरवादियों में एकता नहीं स्थापित कर सकी, पर थेरवाद के
आन्तरिक सतभेदों को दूर करने में वह बहुत कुछ सफल हुईं । सम्राद्
अशोक थेरवाद का ही अनुयायी था और उसके समय में देश-विदेश
में बौद्ध धर्म का जो प्रचार हुआ, वह थेरवाद का ही था। अशोक के
पुत्र महेन्द्र ने लंका में जिस बौद्ध धर्म का अचार किया, वह थेरवाद
ही था। आगे चल कर लंका में थरवाद के दो प्रधान केन्द्र विकसित
हुए--सहाविहार और अभ्यगिरि । थेरवादी सिद्धान्तों का ইল হীলী
महाविहारों में चिरकाल तक अनुशी लन होता रहा ।
अशोक ने बोद्ध धस के प्रचार के लिए जो महान उद्योग किया था
उसका यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं । पर,इसमें सन्देह नहीं
कि उसके प्रयत्न से थरवाद का भारत और पड़ोस के अस्य देशों में बहुत
प्रचार हुआ, और कुछ समय के लिए वह बौद्धों का सवप्रधान सम्प्रदाय बन
गया । सीनान्दर (समिलिन्द) जेसे यवन (औक) राजाओं और कनिष्क
जेसे कुशाण राजाओं ने इसी के उपसम्प्रदायों को अपनाया था।
कनिष्क के ससय में बोद्धों की चौथी महासभा का आयोजन किया गया
जिसके अधिवेशन काश्सीर में हुए थे। वसुमित्र नामक विद्धान्
भिक्ु ने इस महासभा का सभापति पद अहण किया था, ओर इसमें
भी बौोद्धों के पारस्परिक सतसेदों को दूर करने का प्रयत्न किया गया
था। बुद्ध की असली शिक्षाएं कया थीं, और बौद्ध धसं-मन्थो का
वास्वविक अभिप्राय क्या दै, इसका निणय करने के लिए इस सहा-
सभा में (महाविभाषा या विभाषाशास्त्र नामक भाष्य तैयार किए
गए थे । पर यह सहासभा प्रधानतया थेरवादी सम्प्रदायो के भिज्षुश्रों
की ही थी ओर इसमे सम्मिलित विद्धान् थेरवाद के 'सर्वास्तिवाद'
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नालन्दा के अवशेष
सम्प्रदाय के अनुयायी ये | महाविभाषा में इन्होंने सर्वास्तिवाद
सम्प्रदाय के मन््तब्यों का ही समथन किया था ।
सहायान ओऔर हीनयान ; कनिष्क के समय (पहली सदी ई० पू०)
से कुछ पूष ही बौद्ध धर्म के एक नवीन सम्प्रदाय का सूत्रपात हो गया
था, जो आगे चल कर बहुत असिद्ध हुआ । इस सम्प्रदाय का नास
'महायान! था । इसका प्रादुर्भाव महासांधिक सम्प्रदाय से हुआ था।
महासांघधिक सम्प्रदाय. जिन अनेक उपसम्प्रदायों में विभक्त था, उनमें
से एक वेपुल्यवाद था। वेपुल्यवादी विचारक अन्य बोद्धों से जिन
विषयों पर सतसेद रखते थे, वे निम्नलिखित थे--(१) बौद्ध संघ न
दान अहण करता है, न उसका उपभोग करवा हैं, और न संघ को
दान देने मं महाफल है । (२) बुद्ध लोकोत्तर थे, न उन्होंने लोक में
जन्य लिया, व वे संखार में रहे और न उन्होंने घर्मोपदेश किया।
(३) किसी विशेष अभिप्नाय से मेथुन का भी सेवन किया जा सकता
हं वेपुल्थवादी लोगों की ये दीनों ही बातें ऐसी थीं, जो बौद्ध धम
मे विष्लव सचाने वाली थीं! विशेषतया, बुद्ध के सम्बन्ध में यह
प्रतिपादित करना कि उन्होंने न कभी मानव तन धारण कर संसार में
प्रवेश किया, ओर न कभी उन्होंने घमं का डपदेश किया--एक ऐसा
विचार था, जिससे बुद्ध पूणतया अमानव व अलौकिक बन जाते थे ।
वैपुल्यवादी विचारक, संघ को भी बहुत महत्त्व नहीं देते थे । डनके
मत में गृहस्थ लोग भी बुद्ध की शिक्षाओं से लाभ उठा कर 'बोधिसत्व'
पद आप्त करने का प्रयत्न कर सकते थे । संघ में केवल भिक्ु लोग ही
प्रविष्ट हो सकते थे, ओर अनन्य बौद्धों के अनुसार अहत पद व बुद्धत्त्
की प्राप्ति के लिए भिक्ठ बनना अनिवाय था। पर वेपुल्यवादी लोग
भिछुचत और संघ को बहुत महत्त्व नहीं देते थे । ओर इसीलिए बे डसे
दान देना कोई विशेष फलदायक नहीं मानते थे। सेथुन को भी वे देय
नहीं समझते थे, ओर विशेष दशाओं में उसकी भी अनुमति देते थे ।
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