महावीर जयन्ती स्मारिका | Mahavir Jayanti Smarika

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महावीर सवन नमः श्री वद्ध मानाय, निरत कलिलत्मने । सालोकानां त्रिलोकानांयद्विद्यादर्णायते ॥ ( श्रा्ायं समन्तभद्र ) जिनका ज्ञाने तीनों लोकों सहित भ्रालोक को जानने ঈ लिए दर्पण कौ तरह है, जिनकी प्रात्मा से सम्पूएों बाह्य भर प्रम्यन्तर विकृत्तियाँ सवा के लिए दूर हो गयी हैं उन. श्री वद्ध मान भगवान को मेरा प्रणाम है। ` सुरेन्द्र - मुकुटा - श्लिष्ट पाद - पद्मांशु-केशरम्‌ । प्रणमामि महावीरं लोक~-त्रितय-मंगलम्‌ ॥ ( जिनसेनाचार्य ) जिनके चरण कमल की किरण केशर का प्रालिगन सुरेन्द्र का मुकुद करता है, भौर जो तीन लोक के लिए मंगल स्वरूप हैं उन मंगलमय महावीर स्वामी को में प्रणाम करता हूं । जीयादगाधः स-विवोधवारधिर्वीरस्य रत्न त्रय लब्धये वः स्फुरतू-पयो बुदु-बुद बिन्दु मृदां मिदं यदन्तः त्रिजगत्‌ तनोति ॥ ( महाकवि हूरिचन्द्र ) भगवान वीर का वह भ्रगाध शान समुद्र श्राप लोगों की रत्लत्रय ( सम्यगदर्शन, सम्यगज्ञान भौर सम्यकचारित्र ) प्राप्ति का कारण बने, जिसके भीतर ये तोनों जगत्‌ सिर्फ जल के बुद बुदे की शोभा को घारण करते हैं । जरा जरत्याः-स्मरणीय-मीरवर, स्वयं -व रीभूत-मनदव रश्चियः । ` निरामयं वीत मयं भवच्छिदं नमामि वीरं नूषुरा -सुरेःस्तुतम्‌ ॥ ( श्राचायं वीरनन्दी ) जिनके पास जरा कभी नहीं प्राती, जिनको शाइवत लक्ष्मी ने स्वयं ही प्राकर वरणं कैर्‌ लिया है, जो सम्पूर्णं व्याधियों रहित ह, जो बीत भय हैं जिन्होंने भव का भी विनाश कर दिया है, जिनका मनुष्य सुर श्रौर प्रधुर स्तवन ক্ষত ই उन भगवान महावीर को में प्रणाम करता हूं । यो विदवं वेद वेद्यं जनन-जन-निधेर्भज्िनः पार-हश्वा । पौर्वा-पर्या-विरष्दं वचन-मनुपमं निष्कलंक यदीयम्‌ ॥ तं वन्दे-साधु वन्दं निखिल-गुण-निधि ध्वस्त-दोषष्टिषन्तम्‌ । बुद्ध ॑वा वद्ध मानं शतदल निलयं केशवं वा रिवं वा ॥ ( भट्टाकलंक देव )




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