अथर्ववेद भाष्ये | Athrvved Bhashye

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( 8,६६२ ) अथववेवेदभाष्यै परिशिष्टम ॥ सकता । [ देखो “अस्य बामस्य” उपयु क्त अर्थ एवं. मन्त्र “हा सुपर्णा आश जयाः सुकणां उपरस्य आदि । ॥ि ( अथ० &। ६।२१ ) ( खुपर्णाः ) विद्धान्‌ योगी स्मकं, ( निविशन्ते ) खरूप प्रतिष्ठित होकर अन्तर दृष्टि करते हैं । ( खुबते ) असंप्रशात समाधि के पश्चात्‌ उठते हैं । है क्‍ ' ( अथ० ६। (० । २६ ) (पिता ) गर्भस्थापक चा नेका { माला ) शरीर चना म सहायिका! = ` - ` ( अथ० ६ । १० । १७ ) [ पृथियी जल तेज बायु आकाश के परमाणु ] शाद्‌ स्पशं रूप रस गन्ध के कण वा दाने , कुतः शब्दादि पूं है । (अथ १०।१।३) ( शद्रकृता) श्रद्र से की हुई, (राजकता) क्षत्रिय से की हुई, ( ख्लीकृता ) स्त्रियों से की हुई (अह्ममिः কলা) ब्राह्मणों से की हुई वा वैश्यो से कौ हुई [ हिंसाक्रिया ] ( कर्तारम्‌ ) हिंसक पुरुष की, ( बन्धु ) स्नेही वा बन्धने वारे के समान ( ऋच्छतु ) प्राप्त हो वा चली जाये ( इव ) जैसे ( पत्या ) पति करके [ चा पली से ] (युत्ता ) भचज्ञाता=आज्ञा दौ गई वा निकाली हुई [ वा अनुशात अथवा निकारा हुआ | ( जाया ) पत्नी वा पति ]। ... . भावाथं--चारों चर्णों के किसी पुरुष वा स्त्री ने जैसा पाप वा अधमं करिया हो उसे वैखा दणड दिया जावे जैसे दुष्टा छी को पति ओौर दुष्ट पति को स्त्री बन्धन में डलचांता चा डलूचाती है, अथवा जैसे अयोग्य पुरुष [ पति ] ` अपनी -पल्ल को उसके स्नेही के पाश्वं मेज देता है एवं अयोग्या पल्ली अपने पति को उसकी स्नेहिनी खी से नियुक्त कर देती दहै । ` ( जध> १०.।२॥ ७) ( वरौवतिं ) निरन्तर उपस्थित चा व्यापक है । ( अथ० १० । २। १२) (प्राण) बाहर जाने वाला परिश्वास, ( अपान) | आने वाला श्वास, इति महषिं दयानन्द मतम्‌ एवं ( अथ० ६ | १०। १६ )। ২... (অত १०।२।३१) (अष्टा चका ) আত बिद्युत्‌ चक्र नाभि, हृदय, कण्ठ, चिलुक, जिह्धाग्र; नासिकात्रः त्रिवेणी | त्रिकुटी वा भ्रं मध्य ] ओर रन्ध्र स्थान [ह्ारुड चा ब्रह्म रन्ध ] [ मन জীব इद्धि ] पायूपस्यौ मर मूच इन्द्रियां-बुद्धि ओर मन छिद नही है | ` र । ( मथ० १०।५। २) (-क्षत्रयोगेः ) दुल भज्जन के ध्यानों [ चिन्तन ] “४. ( अथ० १०।६।५) ( तस्मै)) उस [ संन्यासी ] के दयि (बम्‌ )




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