हमारे साहित्य की रूपरेखा | Hamare Sahitya Ki Rooprekha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हमारे सायित्य का प्रारम्भ ७ हिन्दी कां प्रारंभ मान सकते हैं । अपने साहित्य के इतिहास का कालविभाग विद्वानों ने इस प्रकार किया हेः-- श्रादिकार अथवा वीरगाथाकाल--संचत्‌ १०५० से १३५० तक पू्ै मध्यकाल अथवा मक्तिकाल--संवत्‌ १३५० से १७०० तकं उत्तर मध्यकाल अथवा रीतिकाल-सवत्‌ १७०० से १९०० तक श्राधुनिककाल अथवा खड़ी बोली कार--१९०० से १९९५ तक किसी कालविशेष में किसी विशेष प्रकार की रचनाओं की प्रचुरता देखकर ही उस काल का नामकरण किया गया है| पर प्रचुरता से यह तात्पये नहीं है कि इस समय किसी अन्य प्रकार की रचनाएँ होती ही नहीं रही हैं। वीरगाथाकाल में वीर रस की रचनाओं की प्रचुरता रही, आगे चलकर यह क्रम शिथिल पड़ा । साहित्य ने दूसरा रंग-रूप पकड़ा | पर साहित्य के भिन्न रूप पकड़ लेने पर भी वीरों की प्रशसा करनेवाली वाणी कभी शुष्क नहीं हुईं | रीतिकाल की सुकुमार श्ंगारी रचनाओं के कलरव में भी भूषण की 'ओजस्विनी वीरवाणी श्रवणगोचर हुईं । इसी प्रकार अन्य कालों में भी एक काल के पश्चात्‌ किसी भिन्न काल का प्रारम्भ बहुत धीरे घीरे तथा अलक्षित प्रकार से होता रहता है । जब किसी कालविशेष की प्रवृत्तियों बहुत स्पष्ट हो जाती हैँ तो उस काल का उन भ्रवृत्तियों से प्राप्त एक नवीन नामकरण हो जाता है । वीरगाथाकाल के पदलेकी जो रचनाएँ प्राप्त हुई हें उनके विषय प्रायः नीति, शगार तथा নীহ रस रहे हैं । नीति की रचनाएँ प्रायः धार्मिक वौद्धों और जैनों के द्वारा हुई हैं। देशी भाषाओं के महत्त्व को सबसे पहले




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