जैन कर्म-सिद्धान्त और मनोविज्ञान की भाषा | Jain Karm-Sidhant Aur Manovigyan Ki Bhasha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ই. अधिशास्ता मनः (879० 78०) द अदस मन (10 )--इसमें आकांक्षाएं पैदा होती हैं, जितनी प्रवृत्यात्मक आकांक्षाएं = और इच्छाएं हैं, वे सभी इसी मन में पैदा होती हैं । अहं मन (?&०)-समाज-व्यवस्था से ज नियन्त्रण प्राप्त होता है, उससे आकांक्षाएं यहां नियन्त्रित हो जाती हैं और वे कुछ परिमाजित हो जाती हैं। उन पर . अंगुश जसा लग जाता है । अहं मन इच्छाओं को क्रियान्वित नहीं करता । ३. अधिशास्ता मन (509८ 8820} -- यह्‌ अहं पर भी अंकुश रखता है, भौर उसे नियन्त्रित करता है । भविरति अर्थात्‌ छिपी हुई चाह । सुख-सुविधा को पने की भौर कष्ट को मिटाने की चाह । यह्‌ जो विभिघ्र प्रकार की आन्तरिक चाह है, आकांक्षा है- इसे कमंशास्त्र की भाषा में अविरति आज्रव कहा है। इसे मनोविज्ञान की भाषा में अदस्‌ मन (10) कहा गया है । कषाय--राग ओर हूष । उमास्वाति कहते हैं--'कपाय भाव के कारण जीव कर्म के योग्य पुदगल्ों का ; ग्रहण करता है, वह बन्ध कहलाता है ।'' | आत्मा में राग या हू प भावों का उद्दीप्त होता ही कषाय है। राग और द्वेष-- दोनों कम के बीज हैं । जैसे दीएक अपनी ऊधष्पा से बत्ती के द्वारा तेत को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लौ) के रूप में बदल लेता हे, बसे ही यह आत्मा रूपी दीपक अपनी राग भाव रूपी ऊष्मा के कारण क्रियाओं रूपी बत्ती के द्वारा कमं-परमाणुओं रूपी तेल: को आकपषित कर उसे अपने कर्म शरीर रूपी लौ में बदल देता है । ५ शाग-क्लेश-- सुख भोगने की इच्छा राग है''--- जीव को जब कभी जिस किसी: अनुकल पदाथं में सुख की प्रतीति हुई है या होती है, उसमें और उसके निमित्तों उसकी आसक्ति--प्रीति हो जाती है, उसी को राग कहते हैं वाचकययं श्री उमास्वाति कहते हैं- इच्छा, मूर््छा, काम, स्नेह, गृद्धता, ममता, अभिनन्दन, प्रसन्नता भौर अभिलाषा आदि अनेक राग भाव के पर्यायवाची शब्द हैं (१९ द्ेष-क्लेश--पातंजल योग-दर्शन में लिखा है कि दुःख के अनुभव के पीछे जो घणा की वासना चित्त मं रहती है उसे द्वेप. कहते है । जिन बस्तुओं अथवा साधनों से दुःख प्रतीत हो, उनसे जो घृणा या क्रोध हो, उनके जो संस्कार चित्त में पड़ें, उसे द्वेंष- बलेश कहते हैं । प्रशमरति में लिखा है-- ईर्ष्या, रोप, देष, दोष, परिवाद, मत्सर, असूया, वैर, प्रचण्डन आदि शब्द देष भाव के पर्यायवाची शब्द & 1 जय प्रमाद, अस्मिता और अभिनिवेद्य का समावेश भी राग-द्ेष में होजाता है। ` संदर्भ: तु क ৫ . . १. कर्मवाद:--प्रस्तुति--युवाचा र्य महाप्रज्ञ ১ २. पं० सुखलालजी कृत कर्मविपाक, प्रस्तावना; पृ० २३ `, बण, {४ क ३ (दिसम्बर; ८८॥




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