जीवन - पथ | Jeevan-path

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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টিতে >> हमारा कर्तव्य क्या है ? भेद और संघ के रहते हुए भी अनुकूलता और सामञ्स्य स्थापित करने का प्रयत करते रहना । संसार मे व्यवस्था है किन्तु बह सहज मे दिखाई नहीं देती दै । कर्त॑व्यशील सयुष्य विघ्र-बाधाश्मों को हटाकर उनको प्रकाश मेँ ले ्राता है। संसार सामञ्जस्य चाहता ই शौर चह सहज में ही स्थापित हो सकता है यदि हम स्वयं उसे बिगाड़ न दें। संसार के सामझ्जस्य पूर्ण लक्ष्य को सममकर भेद में अभेद के रास-राज्य के स्थापित करने में योग देना ही हमारा कतेव्य॑ है । जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तदहं विपति निदाना ॥ सामख़स्य स्थापित करने की इच्छा दी सुमति है । सामञ्जस्य ही धमं है ओर ईश्वर की इच्छा है । कुमति मेद्‌ बुद्धि का पर्याय है। दूसरों की तथा अपनी क्रियाओं को हम इश्वर की इच्छा के अनुकूल बनाकर इस संसार को ही स्वर्ग ब्रना सकते हैं । उसी को हम राम-राज्य कहेगे। वही इंसामसीह के शब्दों में प्रथ्वी पर खुदा की बादशाहत की स्थापना होगी । सामञ्जस्य के लिए यह जरूरी नहीं कि भेदों का असाव हो जाय ओर सब एक मत हयो जायें वरन्‌ यह कि भेद रहते हुए भी पारस्परिक विरोध न रहे, लोग एक दूसरे के मत का आदर करें ओर यथासम्भव संघर्ष को न्यूनातिन्यून कर दें । संसार मे सामञ्ञस्य स्थापित करने वाली बुद्धि का स्थान प्रेम के अथाह-सागर मे है जो प्रत्येक मनुष्य के हृदय मे नैसर्गिक रूप से वतेमान रहता है। प्रेम के इस स्रोत के प्रवाहित होने में हमारा स्वार्थ बाघक होता है। हमारी संकुचित दृष्टि का ही स्वार्थ हमारे प्रेम-सार्ग मे बाधक होता है। उदार दृष्टि से स्वार्थ भी पराथे बन जाता है । हमको अपनी दृष्टि व्यापक बनाकर सारी; मानवता के स्वार्थ से अपने स्वार्थ का सामझ्लस्थ करना ही বুনি ॥ ৮৮




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