जीवन स्मृति | Jeevan Samrti Ac 959 1930

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Jeevan Samrti Ac 959  1930 by Shree Ravindranath Thakur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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््‌ु आय कवि की यह पदिछीं कविता-पानी रिम झिम, रिम झिम- में पढा करता था । जब जब उन दिनों के आनन्द की मुझे याद आती है तब तब कविता में यमकों की इतनी आवश्यकता क्यों है ? यह मेरे ध्यान में आजाता है । झथोत्‌ू यमक के कारण एक प्रकार से शब्द का अन्त हो जाता है और दूसरे प्रकार से नहीं होंता । अथोत्‌ शब्दोधार तो पूरा हा जाता है परन्तु उसका नाद घूमता रददता है । और कान व मन में यमक रूपी गेंद को एक दूसरे की ओर फेंकने की दरियत मानों ऊग जाती दे । इसीढिये ऊपर बतलाई हुई कबिता के शब्द दिन दिन भर मेरे कान के आगे गूंजते रहते थे । मेरी बहुत छोटी अवस्था की एक बात मुझे अच्छी तरह याद दे कि हमारे यद्दां एक बृद्ध जमादार था । उसका नाम था कैठास । बह हमारे कुटुम्बी जनों के समान ही माना जाता था । वह बड़ा ठठोरा था । और छोटे से बड़े तक सब की दिल्लगी उडाता था । विष कर नव विवाहित जमाई और घर में आने जाने वाढे नये मनुष्यों को बद्द खूब ही बनाता था । छोगों का यहद विश्वास था कि मरने के बाद भी कैठास का यह रवभाव नददीं छूटा । उनके विश्वास का कारण भी था । वह यह कि एक समय हमारे कुदुम्ब में 'पन्चेट नामक यन्त्र द्वारा परढछोक गत व्यक्तियों से पड्ा-व्यवहार करने का काम बहुत जोर पकड़ गया था । एक दिन इस




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