सौन्दर्य की नदी नर्मदा | SAUNDARYA KI NADI NARMADA
श्रेणी : बाल पुस्तकें / Children
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29 MB
कुल पष्ठ :
88
श्रेणी :
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अमृतलाल वेगड - Amritlal Vegad
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)इतने में दोनों किशोरियाँ आ गयीं। एक का नाम तो भूल गया, दूसरी
का आज भी याद है-- सुकरती। सुकरती यानी सुकीर्ति! कैसा यशस्व्री नाम!
लेकिन अधिक सुनाई नहीं पड़ता। कुछ नाम सरस और मधुर होते हुए भी
चल नहीं पाते। रेवा कितना प्याश नाम है। बोलने में आसान, सुनने में मधुर.
लेकिन चला नहीं, नर्मदा नाम ही ज्यादा प्रचलित हुआ।
रोज सुबह उधर सूरज निकलता, इधर हम निकलते। रास्ते में एक
संन्यासी की कुटी पड़ी। वहाँ बैठे। वे नर्मदा परिक्रमा कर चुके थे। कहने
लगे, 'परिक्रमा में तीन साल, तीन महीने, तेरह दिन लगे थे। उन दिलों मैं
अन्न नहीं लेता था। कंद-मूल, फल-फूल या दूध-दही। यह भी माँगता नहीं
था। अनायास मिल जाता, तो ही लेता।'
यदि न मिला तो?'
तो माँ का दूध।'
इस आदमी की श्रद्धा देखकर मैं चकित रह गया। इसके लिए नर्मदा
का पानी, पानी नहीं माँ का दूध है।
नर्मदा की खड़ी चट्टानी कगार में पगडंडी धागे की तरह पतली हो
गयी थी। हम रस्से पर चलने वाले नट की तरह नपे-तुले कदम रखते हुए
आगे बढ़ रहे थे। शस्ते में बरतन के दो फेरीवालों का साथ हो गया! टूटे-फूटे
बरतन लेते थे, बदले में गुड़ देते थे। पिपरियाटोला आते ही उन्होंने हाँक
लगायी, 'टूंटे-फूटे बरतन गुड़ के बल्दी गो!'
एक बैगा के घर हम खाना बनाने के लिए रुके। शुरू में तो उसके
परिवार के लोग हमसे सहमे-सहमे रहे, किन्तु ज्यों ही यादवेन्द्र ने स्टोव चालू
किया, तो पहले बच्चे आये, फिर ख्त्ियाँ भी आ गयीं। ऐसा चूल्हा तो उन्होंने
पहले कभी देखा नहीं था। दर्शकों के विस्मय से उत्साहित होकर यादवेन्द्र भी
अपमे पैंतरे दिखाने लगा। कभी आँच को धीमी करता कभी तेज, कभी पिन
से लौ ठीक करता तो कभी पंप से तेजी से हवा भरता। उसके हर करतब
पर भीड़ चकित रह जांती। मदारी जिस तरह बंदर को नचाता है, उसी तरह
स्टोब को नचाकर याददेन्द्र ने उस बैगा परिवार का पर्याप्त मनोरंजन किया।
शाम को खापा पहुँचे। फेरीवाले आगे निकल गये। संन््यासी पीछे रह
गये थे। हम आश्रय की तलाश में थे कि एक लुहार ने हमें अपने यहाँ
ठहरा लिया। मैंने भी सोचा, इस ठेड में लुहार के घर से बढ़कर रैनबसेरा
भला और क्या हो सकता है? भट्टी के पास ही सोये। रात को जो भी
डठता, कोयले डाल कर धौंकनी चला देता।
0 सौन्दर्य के कदी नर्मदा
सुबह आगे बढ़े। रास्ते में मैं एक जगह सुस्ताने बैठा। बैठते ही उछला।
एक लाल चीटे ने डंक मारा था। गलती मेरी थी। मुझे हो देखकर बैठना
था। सोचा, अब जब भी बैठूँगा, नीचे देखकर बैठूँगा। है
जब दो पगडंडियाँ आती, तो हम असमंजस में पड़ जाते। सुनसान
इलाके में किससे पूछते। डोकरघाट के निकट सामने जो पगडंडी थी, वह
अस्पष्ट थी। पहाड़ पर जो जा रही थी, वह साफ थी। हम उसी पर चले।
पहाड़ पर चढ़ते चले गये, पर कहीं कुछ भी नहीं दिखा तो संदेह हुआ कि
कहीं भटक तो नहीं गये। यादवेन्द्र ने कहा, 'आप यहाँ पेड़ के नीचे बैठिए,
मैं आगे जाकर पता लगाता हूँ।'
बैठने के पहले नीचे अच्छी तरह देख लिया। चींटा तो क्या, चींटी
तक न थी। स्केच करने में मगन हो गया। पर कोई दस-पंदरह मिनट के
बाद गंभीर स्वर सुनाई पड़ा। सोचा, दूर बहती नर्मदा का स्व॒र होगा। लेकिन
स्व॒र तेज होता गया तो मेरा ध्यान गया। सामने तो कुछ नहीं था, पर ज्यों
ही ऊपर देखा ते मेरे छक्के छूट गये। मेरे सिर पर मधुमबिखियों का झुंड
मैंडरा रहा था!
मैं सिर पर पैर रखकर भागा। थोड़ी देर और हुई होती, तो वीरगति
को प्राप्त न भी होता, तो भी दुर्गति अवश्य होती। जिस पेड़ के नीचे बैठा
था, उसमें मधुमक्खी का खासा बड़ा छत्ता लगा था। गाँठ बाँध ली कि अब
बैठने के पहले नीचे भी देखूँगा और ऊपर भी देखैगा!
वह पगडंडी जंगल को जाती थी, इसलिए वापस नीचे उतरे। कुछ दूर
झोपड़ियाँ दिखाई दे रही थीं। वहाँ से पगडंडी मिल गयी। सिलगी नदी को
पार करके आगे बढ़े। वहाँ नर्मदा-दट के भीमकाय अर्जुन वृक्षों को देखकर
चकित रह गये। आगे एक बाबाजी की कुटी पड़ी। वहाँ से संन्यासी का फिर
साथ हो गया। कुटरई में पटेल के घर रहने की व्यवस्था हो गयी। बैंठे ही
थे कि आवाज सुनाई दी, 'टूटू-फूटे बरतन गुड़ के बल्दी गो!' फेरीवाले भी आ पहुँचे ।
आज शरद-पूर्णिमा थी-- चंद्र के राज्याभिषिक की रात। लेकिन इस
वीरानः इलाके के टुइ्याँ-से गाँव में किसी ने इसका उत्सव नहीं मनाया! न
भजन-मंडली, न गीत-संगीत। मैं अकेला ही चाँदनी में नहाता रहा। देर तक
चाँद को निहारता रहा। मुझे वह दुर्गा-प्रतमा की तरह जान पड़ा। विधाता
इसे आहिस्ता-आहिस्ता करके चौदह दिनों में गढ़ता है, पत्द्रहवें दिन इसमें
जआ्राण-अ्रतिष्ठा करता है, फिर अमावस्या को इसे नील गगन में सिरा देता है।
सर्जन-विसर्जन का यह क्रम निरंतर चलता रहता है।
मंडला से छिनगौव डी
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